डॉ. अनन्या मिश्र, आईआईएम इंदौर में मैनेजर – कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन एवं मीडिया रिलेशन के पद पर हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
रविवार है। आराम का दिन। साफ़-सफाई का दिन। पूरे सप्ताह के बचे हुए काम निपटाने का दिन। जमे हुए पुराने सामान को बाहर निकाल कर फिर से जमाने का और पुरानी चीज़ों को एक बक्से में बंद कर फिर से कहीं संभाल कर रख देने का दिन। हम पुराना कुछ भी आसानी से छोड़ नहीं पाते। पुरानी यादें, कपड़े, सामान, किताबें, बर्तन… कुछ भी।
अतिसुक्ष्म्वाद से आप परिचित होंगे। यह अर्थपूर्ण जीवन में नयी और ज़रूरत की चीज़ों के लिए जगह बनाने हेतु अव्यवस्था को दूर करने की जीवन शैली है। यह पहले से मौजूद सामान को कम करने या अव्यवस्था के प्रवाह को रोकने का जरिया हो सकता है।
खैर, रविवार के दिन घर की साफ़-सफाई करेंगे और पुराना सामान बाहर करेंगे तो अच्छा महसूस करेंगे। किसी को ज़रूरतमंद को वह सामान दे देंगे तो और भी स्वतंत्र, प्रसन्न और उदार अनुभव करेंगे। अगले दिन भी शायद इसी भावना में ओतप्रोत रहें। उत्सुकतावश और कुछ पुराना सामान खोजेंगे जो किसी को दिया जा सके – क्योंकि यह भावना संतोष दे रही है और हमें और ज्यादा संतोष चाहिए।
यहां मुझे स्मरण होता है रिटेल थेरेपी का, यानि आप खुद को बेहतर महसूस कराने के मुख्य उद्देश्य से खरीदारी करने जाते हैं। एक ओर जहाँ बेहतर महसूस करने के लिए नया कुछ खरीदना सामान्य है, वहीं पुराना सामान किसी को देना और अच्छा महसूस करना एक अलग सोच है।लेकिन अनावश्यक सामान से छुटकारा पाने की यह प्रवृत्ति सामान से छुटकारा पाने पर ज्यादा और बेहतर महसूस करने पर कम केन्द्रित प्रतीत होती है। शायद ऐसा इसलिए क्योंकि पहला भाग मूर्त और दूसरा भाग अमूर्त से संबंधित है। हम अपनी अलमारी में रखा सामान गिन सकते हैं किन्तु बेहतर जीवन का कोई मापदंड नहीं है। यह एक अत्यधिक व्यक्तिगत प्रश्न है जो सभी के लिए अलग होगा। क्या अव्यवस्था को कम करने और एक सार्थक जीवन का निर्माण करने में कोई सम्बन्ध है? मैंने हाल ही में इस विषय पर जानकारी के लिए लेख पढ़े और कुछ शोधों के अनुसार अतिसूक्ष्मवाद (या अधिकतमवाद) और अर्थ-निर्माण के बीच संबंधों पर वैज्ञानिक अध्ययन दुर्लभ हैं, इसलिए हमारे पास बस उल्लेख रह गए हैं।
एक घटना जिसके लिए हमारे पास वैज्ञानिक समर्थन है, वह है हेडोनिक (सुखात्मक) ट्रेडमिल की धारणा, जो प्रमुख सकारात्मक या नकारात्मक घटनाओं या जीवन में परिवर्तन के बावजूद मनुष्यों की खुशी के अपेक्षाकृत स्थिर स्तर पर जल्दी लौटने की प्रवृत्ति है। यह बताती है कि कैसे अल्पकालिक लाभ और हानि का अच्छाई पर दीर्घकालिक प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि हम परिस्थितियों के अनुकूल हो जाते हैं। ब्रिकमैन, कोट्स और जेनॉफ-बुलमैन द्वारा 1978 में किए अध्ययन में पाया गया कि लॉटरी विजेताओं और पक्षाघात से ग्रस्त – दोनों प्रकार के व्यक्तियों ने अपने सापेक्ष परिवर्तन के कुछ महीनों बाद फिर से ‘सामान्य‘ महसूस करने की सूचना दी। हमारे जीवन में चाहे कुछ भी हो जाए, हमारी खुशी पुनःअपनी आधार रेखा पर लौट ही आती है।
एपिकुरस के एक उद्धरण के अनुसार – “वह नहीं जो हमारे पास है, लेकिन हम जो करते हैं वह हमारे जीवन की संतुष्टि को निर्धारित करता है”। अतः रविवार को उन वस्तुओं की सफाई और देखभाल के बोझ से खुद को मुक्त करना जिन्हें हम वास्तव में महत्व नहीं देते हैं, हम जीवन में और अधिक महत्वपूर्ण चीजों पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता उत्पन्न कर सकते हैं।लेकिन फिर भी, यह हमारी पूरी क्षमता से हमें अवगत नहीं करा पाएगा।इसी तरह, आप अपने घर को चाहे कितनी भी खूबसूरत और महँगी चीज़ों से सजा लें, हो सकता है यह कुछ समय के लिए आत्म-सुधार के लिए एक प्रेरणादायक आधार प्रदान करे, किन्तु फिर परिवर्तन अटल और अपरिहार्य है। यह आतंरिक परिवर्तन में कोई योगदान नहीं दे सकेगा।
सार्थक रूप से जीने के लिए, हमें अंतरंग संबंधों को बनाने और पोषित करने के लिए प्रतिबद्धता विकसित करनी होगी, उद्देश्यपूर्ण गतिविधि में संलग्न होना होगा और स्वस्थ जीवन शैली की आदतों को बनाए रखना होगा। पता करें कि कौनसे कार्य आपको ख़ुशी देते हैं, फिर चाहे वह परिवार के साथ समय व्यतीत करना हो या अपना कौशल विकसित करना, या यात्रा करना। यही आपको अंतर्दृष्टि देगा और सार्थक जीवन के लिए प्रेरित करेगा।
हो सकता है इस अतिसूक्ष्मवाद की यात्रा के दौरान आप पर अक्सर ऐसे विचारों की बौछार होती है जो आपको समस्याओं के समाधान के रूप में प्रतीत हों। हो सकता है ये वाकई आपके लिए लाभकारी हों। किन्तु कभी-कभी, अपने लिए समय निकाल कर, आत्मनिरीक्षण करें और समझें कि आपका उद्देश्य और मूल्य क्या हैं। तभी आप उसी स्थान पर लौट सकेंगे जहां से आपने शुरू किया था और व्यस्ततम सप्ताह के अंत में रविवार की सच्ची ख़ुशी समझ सकेंगे।