लेखक ओ पी श्रीवास्तव आईएएस हैं धर्म और आध्यात्म के अध्येता है। मध्य प्रदेश सरकार में एक्साइज कमिश्नर हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
सनातनधर्म, वेदों के आधार पर खड़ा है। वेद नींव हैं और सनातनधर्म उस पर बनी इमारत। यह नींव इतनी मजबूत है कि उस पर बनी इमारत हजारों वर्षों से असंख्य आक्रमणों, दुष्प्रचारों और आलोचनाओं के बावजूद भी यथावत् सीना ताने खड़ी है । समय के साथ इस इमारत का रंग-रोगन करने और उसे चिर नवीन रखने के लिए वेदव्यास, शंकराचार्य, तुलसीदास जी जैसी विभूतियाँ अवतरित होती रहीं हैं । जब इमारत की आमूलचूल मरम्मत और नवनिर्माण की जरूरत पड़ी तो स्वयं भगवान् ने कृष्ण रूप में अवतार लिया । चाहे रंग-रोगन हो, मरम्मत हो या नवनिर्माण इसमें नींव के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई, वह यथावत् है। आज भी वेद वैसे ही हैं जैसे वे मूल रूप में थे।
सामान्य रूप से विचार करने पर लगता है कि सनातनियों ने श्रद्धा के वशीभूत होकर यह कहना शुरू कर दिया होगा कि वेद स्वयं प्रकट हुए हैं, किसी व्यक्ति ने उनकी रचना नहीं की है, वे सदा से हैं, सदैव रहेंगे आदि-आदि। सनातन धर्म में पहले बुद्धि-विवेक आता है फिर श्रद्धा का रोल प्रारंभ होता है। यदि कोई बात बुद्धि-विवेक से सिद्ध नहीं होती और अनुभव से पुष्ट नहीं होती तो वह श्रद्धा नहीं बल्कि अंधविश्वास की श्रेणी में चली जाती है जिसका सनातनधर्म में कोई स्थान नहीं है। इस पृष्ठभूमि में वेदों के संबंध में किये जाने वाले दावों पर विचार करना दिलचस्प होगा।
वेद मूल रूप से एक ही रहा है जिसे विषय की सुसंगतता और सुविधा की दृष्टि से महर्षि व्यास ने चार भागों में विभाजित किया – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। प्रत्येक वेद के भी चार भाग हैं –1. मंत्र भाग जिसे संहिता कहते हैं। 2. यज्ञ अनुष्ठान की प्रद्धति के साथ उनकी फल प्राप्ति का निरूपण वाला भाग ब्राह्मण कहलाता है। 3. आरण्यक वह भाग है जिस पर जंगलों के एकांत में विचार किया जाता था और जो मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर अग्रसर करता है। 4. उपनिषदों में वेदों का दार्शनिक और सैद्धांतिक पक्ष दिया गया है। वेदों को समझने के लिए छ: वेदांग हैं – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष। यह वेदांग वेद मंत्रों का सही उच्चारण,शब्दों की व्युत्पत्ति और उनका अर्थ, सूक्तों के नियम, यज्ञ आदि कर्मकाण्डों का समय निर्धारण आदि सिखाते हैं। वेदों का यथार्थ भाव जानने के लिए वेदांग सहायक हैं। इसके अलावा 4 उपवेद हैं – आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और स्थापत्यवेद।
शास्त्रों में वेदों को ईश्वर की नि:श्वास कहा गया है (वृहदारण्यक उप.)। जिस प्रकार श्वास बिना किसी प्रयास के स्वत: चलती है इसी प्रकार ब्रह्म के स्वाभाविक गुण, जिनसे सृष्टि का संचालन होता है, वेद के रूप में नि:सृत होते हैं। वेद कहते हैं कि एकमात्र ब्रह्म है जिसका अस्तित्व है, जो चेतन है और आनन्दस्वरूप है (सत् चित् आनन्द), जो सदा से है व सदैव रहेगा,यह अपरिवर्तनशील है । यही परम सत्य है। हम सत्य को जान सकते हैं उसका सृजन नहीं कर सकते। हम जब नहीं जानते थे तब भी सत्य था और हमारे बाद भी वह रहेगा।
इसे एक उदाहरण से समझें। प्रकृति का स्वभाव विज्ञान कहलाता है। जब हम नहीं जानते थे तब भी गुरुत्वाकर्षण, घर्षण, गति, ऊष्मा आदि थे । यदि आज सभ्यता नष्ट हो जाए, सारा खोजा हुआ विज्ञान विस्मृत हो जाए तब भी प्रकृति के यह नियम तो यथावत् रहेंगे ही। यदि हजारों वर्षों बाद नई सभ्यता का उदय हो तो वह विज्ञान में इन्हीं नियमों को खोजेगी। इस प्रकार विज्ञान के नियम इस ब्रह्माण्ड के भीतर सदैव एक से रहेंगे। इन नियमों को खोजा जा सकता है, बनाया नहीं जा सकता। वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे ब्रह्माण्ड (मिल्की वे नामक आकाशगंगा) का जन्म 1380 करोड़ वर्ष पूर्व महाविस्फोट (बिगबैंग) से हुआ है। तभी से समय (टाइम) प्रारंभ हुआ। बिगबैंग के बाद पिण्डों में आपसी बलों का जन्म हुआ, फिर कणों में रासायनिक क्रियाएँ प्रारंभ हुईं और बाद में कार्बन अणु बनने के साथ जीवन का प्रारंभ हुआ। यह क्रमश: भौतिकी, रसायन और जीवविज्ञान के नियमों का जन्म है। अस्तित्व में अनन्त सृष्टियाँ हैं और प्रत्येक सृष्टि में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं इसलिए विज्ञान भी अनन्त तरह के हैं। ब्रह्माण्ड के जन्म लेने के साथ ही उसका विज्ञान भी जन्म लेता है और उसी के साथ नष्ट हो जाता है। इसलिए हम कुछ भी कर लें पर हमारा अंतरिक्षयान हमारे ब्रह्माण्ड की सीमा से बाहर जा ही नहीं सकता क्योंकि वहाँ का विज्ञान ही दूसरा होगा। परंतु अनन्त सृष्टियों के कण-कण में व्याप्त चेतना एक जैसी है। यही परम सत्य है जो स्थान तथा समय से परे है। इस परम सत्य की खोज के परिणाम ही वेद हैं।
इसे ऋषियों ने कैसे खोजा इस पर विचार करें। हमारा शरीर स्थूल पंचतत्त्वों ( आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ) से बना है। इन्हीं पंचतत्त्वों के सूक्ष्म अंश से हमारे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार बने हैं। यह निरंतर परिवर्तनशील हैं। हमारा शरीर समय के साथ मोटा-पतला होता है, बीमार होता है और अंत में नष्ट हो जाता है। इसी तरह हमारा मन भी समय के साथ बदलता रहता है। बुद्धि का विकास भी होता है और बुद्धि नष्ट भी होती है, आदि। हम संसार के सारे कार्य व्यवहार मस्तिष्क या हृदय से करते हैं। दोनों ही नाशवान प्रकृति के अंश हैं। यह स्थान और समय (स्पेश एंड टाइम) से परे जा ही नहीं सकते। इसलिए विचार और तर्क ब्रह्माण्ड तक सीमित हैं। वह विज्ञान को जानने के लिए तो ठीक हैं परंतु सृष्टि से परे सर्वत्र व्याप्त परम सत्य ब्रह्म को नहीं जान सकते। इसलिए ऋषियों ने जप-तप, ध्यान आदि ऐसी पद्यतियों की खोज की जिससे ऐसी अवस्था में चले जाएँ जहाँ मन, बुद्धि आदि समाप्त हो जाएँ तब जो शेष बचता है वह शुद्ध चेतना होती है। इस अवस्था में ऋषियों ने चेतना को देखा और उसे मंत्रों के रूप में प्रकट किया। इसलिए वेद के ऋषियों को मंत्रदृष्टा कहते हैं – ऋषयो मंत्रदृष्टार:। वे देखनेवाले हैं, रचनेवाले नहीं। जो देखा वह मंत्र के रूप में प्रकट कर दिया और जो दिखाई दिया वह स्थान और समय से परे है इसलिए अनन्त सृष्टियों में कहीं भी यदि उसे देखा जाएगा तो वह एक जैसा ही दिखाई देगा। हम अपने अनुभव का प्रकटीकरण भाषा के द्वारा करते हैं। भाषा उसी अनुभव को वहन कर सकती है जो वक्ता व श्रोता दोनों का अनुभव हो। परम सत्य का अनुभव केवल दृष्टा को होता है इसलिए यदि वह भाषा के माध्यम से इसे व्यक्त करना भी चाहे तो श्रोता के अनुभव के अभाव में भाषा उसे संप्रेषित नहीं कर पाएगी। इसलिए वेदों में मंत्रों के रूप में ध्वनिसमूहों (ध्यान दें, भाषा नहीं) और मुद्राओं के माध्यम से इसे प्रकट करने का प्रयास किया गया। यदि प्रलय के बाद नई सृष्टि बनेगी तो उसमें भी चेतना का अनुभव यथावत् रहेगा और उसका प्रकटीकरण जिन ध्वनिसमूहों अर्थात् मंत्रों के माध्यम से होगा वह यथावत रहेगा। इसलिए हर कल्प में वेद यथावत रहेगा । इसलिए जिस प्रकार ब्रह्म स्वयं प्रकट हुआ है उसी प्रकार वेद भी स्वायंभू हैं। वेद को किसी पुरुष ने नहीं बनाया इसलिए यह अपौरुषेय हैं।
मनुष्य तो प्रकृति के रहस्य ही पूरी तरह नहीं खोज सकता । तब सर्वत्र व्याप्त चेतना की पूर्ण खोज कैसे संभव है ?ज्ञान की कोई सीमा नहीं है इसलिए वेदों का विस्तार अनन्त बताया गया है – अनन्ता वै वेदा:। प्रत्येक सृष्टि के आरम्भ में (कल्प में) परमात्मा वेदों को प्रकट करते हैं और ब्रह्मा को उनका ज्ञान कराते हैं (श्वेताश्वर उप. 6/18) जिस कल्प में ब्रह्मा का हृदय वेद का जितना अंश ग्रहण कर पाता है वह उनके मुख से निर्गमित होता है और उस कल्प में वेद की उतनी ही शाखाऍं उपलब्ध हो जाती हैं। वर्तमान कल्प में वेद की 1,131 शाखाऍं मानी जाती हैं (महाभाष्य, पश्पशाह्निक)। तैत्तिरीय उपनिषद् में कथा है कि महर्षि भारद्वाज ने समस्त वेदों का अध्ययन करना चाहा। वे तीन जन्मों तक निरंतर वेद का अध्ययन करते रहे। तीसरे जन्म में वे अत्यंत वृद्ध हो गये तब इन्द्र ने उन्हें दर्शन दिये और कहा कि यदि तुम्हें एक जन्म और दिया जाए तो क्या करोगे। महर्षि ने कहा कि वेद का अध्ययन पूर्ण करूँगा। तब इन्द्र ने कहा कि यह पूर्ण नहीं हो सकता। इन्द्र ने तीन पहाड़ दिखाये और तीनों से एक-एक मुट्ठी मिट्टी लेकर सामने रखी और कहा कि तीन जन्मों में महर्षि ने वेद का जितना अध्ययन किया है वह इतना है और जो शेष बचा है वह सामने पहाड़ के बराबर है।
वेद केवल शुष्क ज्ञान नहीं हैं। उनमें ज्ञान है तो रसयुक्त भक्ति है, दर्शन है तो उसे जीवन में उतारने के लिए कर्मकाण्ड है, आत्मज्ञान का मार्ग बताया है तो सांसारिक मनोरथ पूर्ण करने के साधन भी बताए गए हैं। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के प्रतिपादक हैं। सृष्टि से परे सर्वत्र व्याप्त चेतना स्वयंभू है और उसके दर्शन की अभिव्यक्ति वेद है। यह लौकिक धर्मों की सीमाओं से परे है।वेद केवल मनुष्य ही नहीं, जीव जगत ही नहीं, हमारा ब्रह्माण्ड ही नहीं बल्कि अनन्त ब्रह्माण्डों के कण-कण में व्याप्त चेतना का प्रकटीकरण है इसलिए उन्हें न बनाया जा सकता है, न परिवर्तित किया जा सकता है, उनका केवल दर्शन किया जा सकता है। इसलिए वेद अनादि है, अनन्त है और अपौरुषेय हैं।