November 29, 2024

बाज़ारवाद लील रहा मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों का पुश्तैनी कारोबार

इंदौर। एक समय था जब कुम्हारों को दिवाली का इंतज़ार रहता था। दिवाली आने से दो-तीन महीने पहले ही कुम्हार पुश्तैनी मिट्टी से बर्तन बनाने में जुट जाते थे। उस समय मिट्टी के दिये की मांग बहुत ज्यादा थी। दिवाली में ही कुम्हार इतना कमा लेते थे कि उनके साल भर का खर्च आराम से चल जाता था। लेकिन आज भारतीय बाजार में चाइनीज आइटम्स की भरमार से कुम्हारों के सामने रोजी-रोटी व आर्थिक संकट उत्पन्न होने लगा है। लोग चाइना से आने वाले सस्ते दीप व बर्तन रंग बिरंगे डिज़ाइनर की तरफ ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं। जिससे मिट्टी के दीये की मांग साल प्रति साल घटती चली गई।

मेहनत और लागत बड़ी, मुनाफा कम हुआ

कुम्हार समाज के बुजुर्ग बताते है कि हफ्तों की कड़ी मेहनत के बाद मिट्टी के बर्तन तैयार हो पाते हैं। पहले बहुत दूर से तालाब या किसी बांध से मिट्टी को खोदकर लाते है। फिर मिट्टी को साफ कर उसमें से ककंर,पत्थर निकाले जाते हैं। साथ ही मिट्टी में घोड़े, गधे की लीद को मिलाकर उस मिट्टी को दिन दिन भर गूथा जाता है। अगर लीद न मिलाई जाय तो सूखने पर बर्तन चिटक जाते है। किन्तु घोड़े-खच्चरों के उपयोग से बाहर हो जाने के कारण अब लीद मिलना भी दूभर होता है।

इसके बाद मिट्टी को चाक की मदद से आकार देता है। इन मिट्टी के बर्तनों को आग में 24 घंटों तक पकाया जाता है। तब कही जाकर मिट्टी के बर्तन और दीपक तैयार होते हैं। अब पकाने के लिए लकड़ी की लागत भी काफी बढ़ गई। अब इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद भी उन्हें बाजार में बेचना मुश्किल हो गया है। मिट्टी के काम को करते-करते अब उनके पास कुछ और करने का विकल्प नहीं बचा है। अगर उपेक्षा के चलते ऐसा ही रहा तो आगे कुछ समय बाद कुम्हार अपना पुस्तैनी काम बंद करने को मजबूर हो जाएंगे और भूखमरी की कगार पर पहुंच जाएंगे।

कुम्हारी पेशे से जुड़े कुम्हारो ने बताया कि हमारे यहां मिट्टी के बर्तन व दिये बनाने का काम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है। पहले लोग ठन्डे पानी के लिए मटके का इस्तेमाल करते थे जिससे इन वस्तुओं को बेचकर खर्च आराम से चल जाता था परन्तु बदले परिवेश मे मटकी, मटके की जगह फ्रिज ने ले ली, जिससे इनकी मांग कम होती चली गई। आज आलम यह है कि इनको कोई पुछने वाला नही है । मिट्टी के कुल्लड़ में चाय पीते थे परन्तु जबसे फाइवर के गिलास चल गए है तब से मिट्टी के कुल्हड़ का चलन लगभग ख़त्म सा हो गया हैं। हालांकि पूजा-पाठ, शादी-ब्याह आदि मौके पर मिट्टी के बर्तनों और दीये की बिक्री जरूर बढ़ जाती हैं, जो कुम्हारों के ऊँट के मुहं मे ज़ीरा समान है

प्राचीन काल से चल रहा कुम्हारों का व्यवसाय

यदि प्राचीन वस्तुओं को देखा जाय तो कुम्भकरो का व्यवसाय ऐसा है जो बहुत प्राचीन काल से ही पाया जाता है। इसके संकेत पुरातत्व की वस्तुओं की खुदाई में वैदिक काल से ही मिलने लगते है। जब तक लकड़ी के कील में कुम्हारों का चक्र घूमता रहा होगा तब तक सीमित और अनगढन घड़े ही बनते रहे होंगे। किन्तु जब लौह अयस्क की खोज हो गई तो लोहे की कील में चाक के घूमने और अधिक मात्रा में घड़े बनने के कारण घड़े ने व्यवसाय का रूप लिया। अस्तु कुम्भकार नामक एक जाति ही बन गई।

नई व्यापार क्रांति ने बिगाड़ दिया खेल

लगातार बढ़ते आवश्यकता के अनुसार तरछी, डहरी, नाद से लेकर मेटिया दोहनी डबुला, चुकडी, और दिया तक 15- 20 प्रकार के बर्तन बनने लगे जिससे इस समुदाय का व्यवसाय चल पड़ा। व्यवसाय तो स्पर्धा पर टिका होता है? जब तमाम तरह के यांत्रिक उपकरण औद्दोगिक क्रांति के बाद बने तो एक ऐसा चाक भी बन गया जो हाथ मे डंडे को लेकर घुमाने के बजाय एलेक्ट्रिक मोटर से घूमने लगा। जब चाक की रफ्तार एक जैसी बराबर हो गई तो उससे अधिक मात्रा में अधिक सुन्दर बर्तन बनने लगे। इसलिए इस नई व्यवसाय संस्कृति ने ग्रामीण कुम्हारों के व्यवसाय का भट्ठा ही बिठा दिया।

पलायन को मजबूर कुम्हार

कुछ नव युवक इस पैतृक धंधे को छोड़ रोजगार की तलाश में गुजरात महाराष्ट्र की ओर पालयन कर रहे है तो कुछ का रुख पंजाब ईट उद्धोग की मजदूरी की तरफ है।

Written by XT Correspondent