लेखक डॉ आनंद शर्मा सीनियर आईएएस हैं और पूर्व मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी रहे हैं।
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रविवारीय गपशप
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कई बार छोटी छोटी कोशिशें भी बड़े परिवर्तनों का कारण बन जाया करती हैं । इंदौर में जब मैं बतौर अपर कलेक्टर पदस्थ हुआ तब मध्यप्रदेश में हर मंगलवार को जनसुनवाई का आयोजन प्रारंभ ही हुआ था । शासन के निर्देश थे कि इस दिन प्रदेश के हर जिले में अधिकारी अपने दफ्तर में बैठ कर जनता की समस्याएँ सुनेंगें और यथासम्भव उसे मौके पर निराकृत भी करेंगे । इंदौर के तत्कालीन कलेक्टर राकेश श्रीवास्तव ने इसमें नया प्रयोग किया , वे इस दिन कलेक्ट्रेट में सभी विभागों के अधिकारियों के साथ बैठा करते ताकि समस्या के निदान में विभागीय तालमेल की कमी न हो । प्रयोग सफल हुआ और शीघ्र ही पूरे प्रदेश में इसे लागू कर दिया गया । इन्दौर में मंगलवार का दिन हमारी परीक्षा की घड़ी हुआ करता था , शासन के निर्देश तो थे ही , कलेक्टर भी उदारमना थे , तो जनता को हर हालत में संतुष्ट करने का प्रयास करना पड़ता था । मैंने पाया कि हर मंगलवार सुनवाई के लिए आनेवाले लोगों में एक बड़ी संख्या उन आवेदकों की होती थी , जो निजी स्कूलों में पढ़ रहे अपने बच्चों की फ़ीस भरने की सहायता चाहते थे और कलेक्टर रेडक्रॉस के फण्ड से उनकी मदद भी कर दिया करते थे । कुछ दिनों तक तो मैं इस प्रक्रिया को शांत रह कर देखता और अध्ययन करता रहा । मैंने हिसाब लगाया तो पाया हजारों रुपयों में निजी स्कूलों की फ़ीस हम इस तरह मदद के ज़रिए भर रहे थे । मैंने कलेक्टर साहब को विस्तृत विवरण दिखा कर निवेदन किया कि सर एक तरह से फ़ीस भर के हम निजी स्कूलों की मदद कर रहे हैं । ये आवेदक यदि इतने ग़रीब हैं कि निजी स्कूलों की फीस न भर पायें तो इन्हें अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिल कराना चाहिए जिसमें सरकार इतने संसाधनों से शिक्षा के प्रयास कर रही है । मैंने यह भी निवेदन किया कि रेडक्रॉस के फण्ड का उपयोग चिकित्सकीय सहायता में किया जाए तो ज़्यादा वाजिब होगा । कलेक्टर मेरी बात से सहमत तो हुए पर बोले “ ऐसे आवेदकों को जो इतनी बड़ी संख्या में आते हैं , समझाना और स्कूलों को ढूँढना मुश्किल होगा । मैंने आश्वस्त किया कि ये आप मुझपर छोड़ दीजिए । अगले सप्ताह से ऐसे सभी आवेदकों को फीस भरने में हम असमर्थता व्यक्त करते , उन्हें समझाते कि सरकार की कतई ये प्राथमिकता नहीं है की हमारे बच्चे सरकारी के बजाए निजी स्कूलों में पढ़ें । उन्हें हम ख़ुद अपने उदाहरण दे कर समझाते , कि मैं स्वयं और मेरे ये साथी अधिकारी भी सरकारी स्कूलों में पढ़ कर ही इस कुर्सी तक पहुँचे हैं ।एकदम शुरुआत में तो नहीं , पर धीरे धीरे बात बनने लगी । मैं ऐसे मौके पर अपने साथ जिला शिक्षा अधिकारी को रखता जो ऐसे आवेदकों के मान जाने पर , उनके रहवास के निकटतम स्कूल में उनके बच्चों के दाखिले को सुनिश्चित करते ।इस तरह सरकारी स्कूलों में बच्चों के एडमिशन बढ़ने लगे और रेडक्रॉस के फण्ड से निजी स्कूलों की सहायता बंद हो गई और जनसुनवाई में वास्तविक जरूरतमंदों की ओर हम बेहतर ध्यान दे पाने लगे ।
क़िस्सा 2
पदोन्नति उपरांत जब मैं राजगढ़ में कलेक्टर हुआ तो निर्देशों के अनुरूप मैं भी सभी जिलाधिकारियों के साथ बैठ कर प्रति मंगलवार जन सुनवाई किया करता था । एक दिन की बात है , जनसुनवाई के दौरान एक ग्रामीण परिवेश की महिला ने आवेदन मेरे समक्ष रखते हुए बारिश के कारण मकान के टूटफूट के मुवायजे की माँग रखी । मैंने आवेदन देखा तो उसमें मकान के पट्टे की माँग लिखी थी । मैंने कहा “ बहन आपने आवेदन ठीक नहीं लिखा है , जो चाहती हो वैसा लिख लाओ । वो वहीं खड़ी रही तो मैंने पूछा क्या बात है ? वो अफ़सोसजनक स्वर में बोली “उसके लिए तो फिर बीस रुपये लग जाएँगे” । मैंने पता किया तो पता लगा अर्ज़ीनवीस दरख्वास्त लिखने के बीस रुपये माँगा करते थे , और ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के लिए ये रकम मायने रखा करती थी । मैंने उस दिन तो अपने हाथों विषय सुधार कर उसका आवेदन मंजूर कर दिया पर ये विषय मेरे मन को मथता रहा । जिले में मेरे सी.ई.ओ. जिला पंचायत ईलैया राजा और मुख्यालय एस.डी.एम. रामप्रकाश युवा अधिकारी थे । दोनों के साथ बैठ मैंने योजना बनाई और स्कूल कालेज के बच्चों के हॉस्टल में बड़ी उम्र के बच्चों को इकट्ठा कर ऐसे बच्चे छाँटे जिनकी लिखावट अच्छी थी । इसके बाद उन्हें समस्या को समझ आवेदन लिखने की ट्रेनिंग दिलवाई और अगले सप्ताह प्रयोग के तौर पर दस बच्चों का ग्रुप कलेक्ट्रेट के मुख्यद्वार पर कुर्सी टेबल लगा कर आवेदकों की तकलीफ़ समझ उनके आवेदन मुफ्त में लिख रहा था । जिले में ये प्रयोग इतना सफल हुआ कि जल्द ही हमें ढेर सारे बच्चों के अनुरोध मिलने लगे कि वे भी दरख्वास्त लिखने में अपना सहयोग देना चाहते हैं । हम उत्साहित हुए , योग्य बच्चों को छाँट उन्हें भी इसके लिए तैयार किया और आने वाले महीनों में जनसुनवाई में लगभग सभी आवेदकों की दरख्वास्त मुफ्त में लिखी जाने लगी ।