स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर विशेष।
आध्यात्मिक लोकतंत्र है हिन्दूधर्म।
लेखक ओमप्रकाश श्रीवास्तव आईएएस अफ़सर हैं और एवं धर्म,दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
बाहर शासन करने वाली व्यवस्थाएँ जैसे राजतंत्र, तानाशाही, धर्म का संगठित तंत्र (पोप, अमीर आदि), लोकतंत्र आदि होती हैं। इनमें लोकतंत्र को छोड़कर शेष में कोई एक सत्ता निर्णय करती है और बाकी लोगों से उस पर श्रद्धा और विश्वास रखते हुए पालन की अपेक्षा की जाती है। इनके विपरीत, लोकतंत्र, विचारों की स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा को महत्व देता है। इसी प्रकार आंतरिक शासन करनेवाले धर्म भी विविध स्वभाव के होते हैं।
स्वभाव के आधार पर विश्व के धर्मों को दो भागों में बाँटा जा सकता है पहले इब्राहमिक धर्म जिनमें यहूदी, ईसाई व इस्लाम आते हैं। इनमें एक पवित्र पुस्तक है व ईश्वर का संदेश लानेवाले महापुरुष हैं। इन पर सम्पूर्ण विश्वास ही इनका आधार है। इनके सिद्धांतों पर किसी प्रकार की शंका या संशोधन करने की गुंजाइश नहीं है। वे दुनिया को दो भागों में बाँटते हैं – वह लोग जो उनके सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं और जो विश्वास नहीं करते। इनकी मान्यता है कि ईश्वर की कृपा उसी को मिलेगी जो इनके मत को मानेगा।
दूसरी ओर भारत में उदित हुए सनातन धर्म (प्रचलित नाम हिन्दू धर्म) है जिसमें ऐसा कोई विभाजन नहीं है। इसका कारण यह है कि विज्ञान की तरह यह धर्म भी स्वमेव पैदा हुआ है। जिस प्रकार प्रकृति के गुणधर्म जैसे गुरुत्वाकर्षण, घर्षण,चुम्बकत्व, जैविक-रासायनिक क्रियाएँ आदि स्वमेव पैदा हुई हैं और विज्ञान इनकी खोज करता है उसी प्रकार सृष्टि के उद्गम स्रोत, कण-कण में उद्भासित और चेतना के रूप में सर्वत्र व्याप्त ब्रह्म का गुणधर्म या स्वभाव सदैव से है और सदैव यथावत् रहेगा अर्थात् सनातन है। इसके सिद्धांत भी विज्ञान की तरह ही खोजे गये हैं, किसी व्यक्ति ने बनाए नहीं हैं। इस खोज को करने वाला धर्म, सनातनधर्म है। बौद्ध, जैन तथा सिख धर्म इसी सनातन धर्म से निकले हैं।
विज्ञान की खोज में भी पहले सिद्धांत की कल्पना की जाती है, उस पर तर्क, वाद विवाद होते हैं, प्रयोगों के माध्यम से उसके प्रमाण खोजे जाते हैं तब उसे स्वीकार करते हैं। बाद में नए तथ्य, प्रकृति की नई घटनाओं के प्रकाश में यह सिद्धांत पुन: बदले भी जा सकते हैं। इसी प्रकार सनातन धर्म में सिद्धांतों को माना नहीं जाता बल्कि आंतरिक अनुभव कर के जाना जाता है। इस प्रक्रिया में पुराने सिद्धांतों का परीक्षण, संशोधन, परिष्कार और नए विचारों का जन्म अनवरत चलता रहता है।
धर्म भी अपने स्वभाव में वैज्ञानिक या रूढि़वादी हो सकते हैं, तानाशाह, एकाधिकारवादी या लोकतांत्रिक हो सकते हैं और जड़ या प्रगतिशील हो सकते हैं। सनातन धर्म की विशेषताएँ और प्रक्रियाएँ पूरी तरह से लोकतांत्रिक हैं। इसकी सोच वैज्ञानिक है। इसी कारण स्वामी विवेकानन्द ने इसे आध्यात्मिक लोकतंत्र कहा।
वेदों के अनुसार सत्य एक है जिसे विद्वान अपने अपने अनुभव के अनुसार विभिन्न नामों से पुकारते हैं – एको सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । संसार में हर मनुष्य की रुचि व प्रकृति अलग-अलग है। वे एक ही सत्य को विभिन्न तरीकों से अनुभव करते हैं। इसलिए उनका अनुभव उनके लिए सत्य होता है भले ही वह किसी दूसरे के अनुभव से भिन्न ही क्यों न हो। एक बोधकथा में चार अंधे व्यक्ति एक हाथी को छूकर चार तरह से बताते हैं। जिसने पैर छुआ उसने हाथी को खंभे जैसा, जिसने कान छुआ उसने सूप जैसा, जिसने पेट छुआ उसने मटके जैसा और जिसने पूँछ छुई उसने झाड़ू जैसा बताया। वास्तव में हाथी आंशिक रूप से इन के बताए जैसा है पर वह पूर्ण सत्य नहीं है। उस व्यक्ति की अनुभूति उसके लिए सत्य है। इसलिए अनुभूति में विभिन्नता होते हुए भी उन्हें स्वीकार किया जाता है।
सनातन धर्म प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से अपना रास्ता तय करने की व्यवस्था देता है। यह प्रश्नों को हल करने का मार्ग बताता है, उत्तर नहीं देता। रेडीमेड उत्तर ‘जानकारी’ होगी, स्वयं की खोज से प्राप्त उत्तर ‘ज्ञान’ होगा। ऋग्वेद के सृष्टि सूक्त (10.129) में सृष्टि के उद्भव पर चर्चा करते यह जिज्ञासा की गई है कि कि ब्रह्माण्ड कब, क्यों और किसके द्वारा अस्तित्व में आया। इस सूक्त में इसका कोई उत्तर नहीं दिया गया । यह स्वतंत्र विचारों और ज्ञान की खोज को प्रोत्साहन है।
सनातन धर्म व्यक्ति नहीं बल्कि सिद्धांतों पर आधारित है। इसका आधार मनुष्य की आत्मा है जो अविनाशी, अपरिवर्तनशील ईश्वर का अंश है। राम, कृष्ण जैसे अवतारों ने अपना कोई धर्म स्थापित नहीं किया। इसी सनातन धर्म का पालन किया। हिंदू धर्म का किसी भी कला या विज्ञान से कोई विरोध नहीं है। वेदों के अंग के रूप में – शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष – और चार उपवेद – आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और स्थापत्यवेद का विकास हुआ। यह सभी धर्मनिरपेक्ष कलाएँ और विज्ञान हैं।
सनातन धर्म केवल हिंदुओं के लिए नहीं है। यह तो मानव-धर्म है। यह मनुष्यों के बीच निर्जीव, निश्चेष्ट समानता लाने में विश्वास नहीं करता। यह अनेकता में एकता का दर्शन करता है। इसलिए हिंदू धर्म में एकदेववाद, बहुदेववाद, विश्वदेववाद, सर्वात्मवाद, प्रतीकात्मक मूर्तिपूजा, मंत्रविद्या, अज्ञेयवाद और निरीश्वरवाद एक साथ समरस भाव से मिले हैं । इसलिए इसके मान्य ग्रंथों में वेद, उपवेद, वेदांग, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, सूत्र, प्रतिसाख्य, अनुक्रमणी, स्मृति, पुराण, इतिहास, दर्शन, निवंध आगम आदि श्रेणियों में हजारों ग्रंथ उपलब्ध हैं। इसलिए विरोधी विचारधारा वालों पर यह कभी अत्याचार नहीं करता।
आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए किया गया हर प्रयास हिंदू धर्म को मान्य है। यह विकास के विभिन्न स्तरों पर जी रहे मनुष्यों को उनकी मानसिक क्षमता और रुचि के अनुकूल साधन व अवसर उपलब्ध कराता है। जैसे पढ़ाई प्राथमिक कक्षा की भी होती है और स्नातकोत्तर की भी। दोनों का अपना महत्व है। स्नातकोत्तर वाला विद्यार्थी यह नहीं कह सकता कि प्राथमिक कक्षा की पढ़ाई अनुपयोगी है। इसीलिए गीता में कृष्ण ने लोगों की श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग रूपों में ईश्वर की आराधना का समर्थन किया है (गीता 7.21)
हिंदू धर्म पूरी तरह लोकतांत्रिक धर्म है इसलिए इसमें कोई केंद्रीय ताकत नहीं रही जो अनुयायियों पर अपनी इच्छा थोप सके। शास्त्रों में मार्गदर्शन है परंतु उसे अपनाने की बाध्यता नहीं है। गीता में पूरा उपदेश दे चुकने के बाद कृष्ण कहते हैं –‘मेरे वचनों पर चिन्तन मनन करके जैसी तेरी इच्छा हो वैसा करो (18.63) । सारा जोर विचार करने,अनुभव करने और अपना मार्ग तय करने पर है।
हिंदू धर्म यह नहीं कहता कि केवल इस धर्म को मानने पर ही मोक्ष मिल सकता है। यह तो सत्य की सतत खोज को प्रोत्साहित करता है जिसके अनन्त रास्ते हो सकते हैं। कोई दूसरे धर्म या मजहब के ग्रंथों, तरीकों में भी सत्य खोज सकता है तो उसे भी रोका नहीं जाता। सत्य की खोज में लगा हर व्यक्ति सनातनी है। यहाँ तक कि नास्तिक हिन्दूधर्म की आलोचना कर सकता है और अपने को हिन्दू भी कह सकता है और अगर वह सत्य की खोज कर लेता है तो नास्तिक होते हुए भी वह मोक्ष का अधिकारी है। इसलिए हिंदूधर्म, धर्मपरिवर्तन में विश्वास नहीं करता। हिंदू धर्म के इतिहास में किसी ग्रंथ को न तो जलाया गया और न ही उसे प्रतिबंधित किया गया। यह प्रलोभन देकर, फुसलाकर या बल पूर्वक अपने सिद्धांत या मतों को स्वीकार करने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता। हिंदू धर्म तो संक्रामक धर्म है जो अपनी आंतरिक शक्ति, सौन्दर्य एवं आकर्षण के कारण फैलता है। सनातन धर्म का उपदेश जबरदस्ती नहीं दिया जाता। यह तो पात्र और इच्छुक व्यक्ति को ही दिया जाता है। गीता में यहाँ तक कहा गया है कि यह ज्ञान उसे कभी नहीं कहना चाहिए जो जो सुनना नहीं चाहता (गीता 18.67) ।
इसमें प्रश्न पूछने की, शंका करने की पूरी स्वतंत्रता है। नचिकेता ने अपने पिता द्वारा दिये गये दान के पाखंड पर ही शंका कर दी थी। ऋषि सत्य की खोज में नास्तिकों से भी शस्त्रार्थ करते थे जैसा वैज्ञानिक गोष्ठियों और लोकतांत्रित संस्थाओं में होता है। आचार्य शंकर ने कर्मकांडी मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया था। ऋग्वेद (1.89.1) में कहा है – हमारे लिए सभी ओर से कल्याणकारी विचार आयें – आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत: | अच्छे विचार केवल हिन्दू धर्म या भारत की ही बपौती नहीं है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था की तरह विचार और क्रियाओं की पूर्ण स्वतंत्रता और विज्ञान की तरह तर्क, वाद-विवाद और प्रयोग आधारित अनुभव ही हिन्दूधर्म की विशेषता है। विश्व में चर्च या इस्लाम के खिलाफ बोलने वालों को मार दिया जाता रहा है। वैज्ञानिक खोजें भी इससे बची नहीं रह पाईं। गैलोलियो को, सूर्य के चारों पृथ्वी के परिभ्रमण का वैज्ञानिक सिद्धांत देने पर कारावास में डाल दिया था परंतु सनातनधर्म में विरोधी विचारों को भी पूरा सम्मान दिया गया। भौतिकवादी चार्वाक ने अपने विचारों में वेदों की, ईश्वर की, कर्म और पुनर्जन्म की धज्जियाँ उड़ा दीं पर उन्हें भी सम्मान से ऋषि कहा गया। बुद्ध ने वेदों और कर्मकांड को चुनौती दी थी फिर भी उन्हें भगवान् का अवतार माना गया।
विवेकानन्द जी ने विश्व धर्म परिषद में 1893 में कहा था – मैं उस धर्म का प्रतिनिधि हूँ जिसने सहिष्णुता और समन्वय सारे विश्व को सिखाया । खेद है कि आज वाट्सएप यूनिवर्सिटी के जमाने में सहिष्णुता और समन्वय को कायरता और धर्म से विश्वासघात कहा जा रहा है। जिन देशों में आक्रामक और प्रसारवादी धर्मों ने प्रवेश किया वहाँ के मूल धर्मों का लोप हो गया परंतु सनातन धर्म की ही यह ताकत है जिसके कारण सारे आक्रमणों को झेलते हुए भी हिंदू धर्मावलम्बियों की संख्या निरंतर बढ़ती गई। 15 वीं सदी में भारत (पाकिस्तान व बंगलादेश को मिलाकर) की जनसंख्या 13 करोड़ थी जो 2011 की जनगणना में 121 करोड़ हो गई, जिसमें 96.62 करोड़ हिन्दू थे। अब तो हिन्दू 110 करोड़ से ज्यादा हो गये हैं। पूरे विश्व में हिन्दुओं की बसाहट बढ़ी है। हिन्दू धर्म ने दूसरे धर्मों के समन्वय से सूफी जैसे सहिष्णु पंथों को जन्म देने का चमत्कार कर दिया।
जब-जब समाज को अपने कामों में स्वतंत्रता मिली है ज्ञान, विज्ञान, दर्शन और प्रकारांतर से सनातनधर्म फला-फूला है। सनातन धर्म का अंतिम लक्ष्य मुक्ति है जिसके लिए अवसर तभी उपलब्ध होंगे जब नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, अवसर की समानता और व्यक्ति की गरिमा की प्रतिष्ठा होगी। हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में इन सब बातों का उल्लेख किया है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर लोकतंत्र को सुदृढ़ करना और हिन्दूधर्म के उदार और समन्वयी स्वरूप को बनाए रखने का संकल्प ही आज की आवश्यकता है।