लेखक डॉ आनंद शर्मा सीनियर आईएएस हैं और पूर्व मुख्यमंत्री के पूर्व विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी रहें हैं।
रविवारीय गपशप
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कई बार ऐसा भी होता है कि इन्सान अपनी खूबियों को भूल दूसरों के सहारे तलाशने लगता है , तब ईश्वर ही उसे इशारों में इस भूल का अहसास करा देता है । बात पुरानी है , उन दिनों मैं इंदौर में अपर कलेक्टर हुआ करता था । मेरे एक मित्र हैं , जिनका आतिशबाज़ी का व्यवसाय है , और इस कारण वे दक्षिण भारत की यात्राएँ किया करते थे । मुलाकातों में वे अक्सर तिरुपति के मंदिर का भी ज़िक्र करते जिसके विवरण सुन सुन कर मुझे भी दर्शनों की इप्सा जागी और मैंने उनसे कहा कि इस बार यदि मैं आई.ए.एस. की पदोन्नति में सफल हुआ तो आपके साथ मैं भी तिरुपति दर्शनों के लिए चलूँगा । कुछ महीनों बाद हुई पदोन्नति की बैठक में , मैं अपने अन्य बैचमेट्स के साथ भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में पदोन्नत हो गया । मित्र ने मुझे मेरा संकल्प याद दिलाया तो मैंने उनसे कहा “मैं चलने के लिए तैयार हूँ पर वहाँ बड़ी भीड़ होती है तो रुकने और दर्शनों की व्यवस्था कैसे होगी ? “ मित्र बोले उसकी आप चिंता न करो मेरे दक्षिण के कारोबारी मित्र से मैंने रुकने की व्यवस्था करा ली है और दर्शनों के लिए मेरे मित्र राव साहब जो आई.पी.एस. हैं , उनसे फ़ोन करने के लिए अनुरोध कर लिया है तो शीघ्र दर्शन की व्यवस्था भी हो जाएगी ।” उन दिनों इंदौर से हैदराबाद होते हुए तिरुपति के लिए एक फ्लाइट भी चला करती थी , सो इन व्यवस्थाओं की संभावना पर हमने आने जाने के टिकट करा लिए । तिरुपति पहुँचे तो वहाँ भारी भीड़ थी , ऊपर जाने में रोक थी । हमने बताया कि ऊपर रुकने की व्यवस्था है सो हमें ऊपर आने मिल गया और हम एक गेस्ट हाउस में रुक गये । एक चरण तो पूरा हो गया था । शाम को हम मंदिर के कार्यालय में पहुँचे तो पता लगा दर्शनों के लिए किसी का फ़ोन नहीं आया था । ऊपर मंदिर परिसर में एक थाना है , हम वहाँ पहुँचे और दरियाफ़्त की तो पता लगा वहाँ भी कोई संदेश नहीं है । हम परेशान हो उठे , लाइन में लग कर दर्शन कर तो सकते थे , पर उसमें दो दिन लगते और हमारी वापसी की टिकिट अगले दिन की ही थी , उस पर मुसीबत ये कि मैं इतनी छुट्टी लेकर नहीं आया था । मेरे मित्र ने राव साहब को फ़ोन लगाने की कोशिश की , पर फ़ोन का नेटवर्क का झमेला ऐसा था कि बात ही नहीं हो पा रही थी । भटकते भटकते रात हो चली , हम फिर से मंदिर कार्यालय में पता लगाने गए कि कुछ हो सकता है या नहीं पर निष्कर्ष नकारात्मक ही थे । हम कार्यालय परिसर में परेशान बैठे थे , तभी मंदिर का एक कर्मचारी आता दिखा । मैंने उसे रोक कर पूछा कि क्या शीघ्र दर्शन की कोई व्यवस्था हो सकती है ? उसने कहा आप कौन हो ? मैंने उससे कहा मैं एक आई.ए.एस. अफ़सर हूँ । उसने थोड़ा आश्चर्य से मुझे देखा और पूछा आप ख़ुद आई.ए.एस. अफ़सर हो । मैंने हाँ की मुद्रा में सर हिलाया तो उसने कहा आपके पास कोई आइडेंटिटी कार्ड है ? मैंने जेब से अपना आई.कार्ड. निकाल उसे दिया तो वो बोला आइए मेरे साथ । हम उसके पीछे पीछे मैनेजर के कमरे में पहुँचे , वहाँ उसने मेरा आई.कार्ड. देखा तो सम्मान के साथ सामने की कुर्सी पर बिठाया और एक कागज पर दर्शन सुविधा का पर्चा लिखा । अगली कुछ घड़ियों में आवश्यक शुल्क जमा करने के बाद हमारे पास भगवान तिरुपति बालाजी के प्रातः दर्शन के पास थे । अपने मित्र के साथ मैं गेस्ट हाउस में यह सोचते हुए विश्राम के लिए चल पड़ा कि भगवान बालाजी मानों कह रहे थे “ मैंने तुझे ख़ुद आई.ए.एस. बनाया तो तुझे मेरे दर्शन के लिए किसी आई.पी.एस. की सिफारिश की क्या ज़रूरत है ।”