लेखिका डॉ. अनन्या मिश्र, आईआईएम इंदौर में मैनेजर – कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन एवं मीडिया रिलेशन ऑफ़िसर हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
आप ईश उपनिषद से निश्चित ही परिचित होंगे – यह प्रमुख उपनिषदों में से एक है जिसे प्राचीन भारतीय दर्शन के स्रोत के रूप में जाना जाता है। इसमें व्यक्त किए गए विचार आधुनिक प्रबंधन के तहत व्यावसायिक नैतिकता के अनुशासन और कॉर्पोरेट जगत के प्रबंधकीय स्तर केअधिकारियों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं। मैं हाल ही में एक शोध में वर्णित इस विषय की गहनता से परिचित हुई।
विज्ञान हमें सिखाता है कि, ‘अनंत घटा अनंत, अनंत है‘। पूर्ण ज्ञान के विषय में ईशोपनिषद में कहा गया है कि यह प्रचुर मात्रा में है। किन्तु वर्तमान परिदृश्य में, खासकर कर्मस्थलों पर, ‘सूचना शक्ति है‘ की मान्यता अत्यधिक लोकप्रिय है। मठाधीश कर्मचारी महत्वपूर्ण ही नहीं अपितु छोटी और सामान्य जानकारियां भी किसी रहस्य की तरह अपने पास छुपा कर रखते हैं और किसी से भी अपना ज्ञान साझा नहीं करते हैं। विज्ञान में कहा गया है कि अनंत में से अनंत घटा देंगे तो भी अनंत ही बचेगा। ज्ञान भी अनंत है, किन्तु कई संगठनों में पहले से किसी संस्थान में काम कर रहे व्यक्ति एक नवागंतुक के साथ कुछ भी साझा करने से बचते हैं। शायद इसलिए, क्योंकि उनकी क्षमता का क्षेत्र सीमित है, या उन्हें भ्रम है कि यह संगठन में उनका अस्थायी महत्त्व बढ़ाता है। नतीजतन, टीम के नए सदस्य को शुरुआत से सब कुछ स्वयं के हिसाब से सीखना पड़ता है, और न सिर्फ उसका, अपितु संस्थान का भी वक्त बर्बाद होता है। कई बार जानबूझकर उससे छुपी हुई बातें उसकी विफलता का कारण बनती हैं। इस प्रकार एक संगठन द्वारा सामूहिक रूप से कई मानव-घंटों और धन का व्यय होता है,जो स्पष्ट रूप से ‘ज्ञान साझाकरण‘ के ज़रिए बचाया जा सकता था। कई बार वरिष्ठ भी अपने पक्षपाती व्यव्हार के कारण अधिक उपलब्धता की अनदेखी करते हैं, जबकि सबको एक समान दृष्टि से देखना, और अवसर देना, उन्हीं की ज़िम्मेदारी है।
ऐसी स्थिति में ‘नेतृत्व तटस्थता’ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। नेतृत्व की क्षमता, नियंत्रण और उचित दृष्टि से एक संगठन निश्चित रूप से सफलता प्राप्त कर सकता है। ईशोपनिषद में ‘दृष्टि और नियंत्रण‘ को भी संदर्भित किया गया है। इसे नेतृत्व की गुणवत्ता के रूप में देखा जा सकता है, जो अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण रखे, वचनों को प्रबंधित करे और संतुलित दृष्टिकोण व्यक्त करने और दूरगामी सकारात्मक निर्णय लेने में सक्षम हो। दूरदर्शी वही है जो समय से पूर्व स्थिति का सही अनुमान लगा लेता है और शुरुआती अवसरों को को पहचान कर आंतरिक और बाहरी हितधारकों के लिए अवसरों से लाभ प्राप्त करने और करवाने की क्षमता रखता है। कभी-कभी बाधाएं इतनी निराशा लाती हैं कि मन पर नियंत्रण कम या बिलकुल न होने पर ऐसे अवसर नज़र ही नहीं आते। इसलिए, कहा जाता है कि एक प्रबंधक का कार्य अपने अधीनस्थों को उस स्थान तक ले जाना है, जहाँ वे पहले कभी नहीं गए हैं।
जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का नियम प्राकृतिक है, जिस प्रकार ऋतुओं को हम रोक नहीं सकते, जिस प्रकार सूर्य हर संध्या में अस्त होता है और अगले दिन पुनः विश्व रोशन करता है, वैसे ही तटस्थ नियम संगठन में भी अनिवार्य होने चाहिए। अनुशासनहीनता, भ्रष्ट आचरण या पूर्वाग्रह, आदि के खिलाफ नैतिक मानदंड स्थापित होने चाहिए। ईशोपनिषद के अनुसार,‘ब्रह्मा’ के इस तंत्र में लोगों को यह महसूस करने की आवश्यकता है कि इस प्रणाली में हर चीज को नियंत्रित करने वाला एक नियम है जो उनके व्यवहार पर भी नज़र रखता है। ‘कारण और प्रभाव‘ संबंध का सार्वभौमिक नियम निश्चित है। इसलिए मनुष्य को लगातार अपने अच्छे गुणों को विकसित करने और बुरे को कम करने की ओर अग्रसर होना चाहिए।
कार्यक्षेत्र कई बार कुछ चीज़ें होती है जो हम नहीं जानते हैं – जिन्हें जानना आवश्यक है। प्रबंधन में इसे ‘पॉइंट वल्नरेबिलिटी‘ कहा जाता है(ईशोपनिषद में अविद्याम्)। यदि कोई किसी क्षेत्र से अनभिज्ञ है जिसे वह जानने की आकांक्षा रखता है, तो इसे ‘सकल भेद्यता‘ (विद्याम्) कहा जाता है। यह सत्य है कि कोई भी इंसान ‘पूर्ण’ नहीं है, इसलिए हम अपने क्षेत्र के कुछ अंशों यानी अविद्या, अज्ञानता या भ्रम के प्रति संवेदनशील रहते हैं। जब कोई ऐसा करने में विफल रहता है तो वह ईशावास्य के अनुसार अंधकारमय हो जाता है।
नेतृत्व के विषय में ईशावास्य में वर्णन है कि जानकार और बुद्धिमान व्यक्तियों से अधिक अपेक्षा की जाती है। आधुनिक प्रबंधन में ऐसे लोग संगठन का नेतृत्व करने के लिए उत्कृष्ट माने जाते हैं। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ है कि एक प्रबंधक को एक छोटी सी गलती भी करने की अनुमति नहीं है, अतः उसे स्वयं में सुधार के लिए लगातार प्रयास करना चाहिए।
ईशोपनिषद ने अनुसार, प्रलोभन और कुछ नहीं बल्कि सफलता की यात्रा में भिन्नताएं हैं। इसमें उल्लेख है कि सत्य स्वर्ण के आवरण के नीचे छिपा है। लोग अक्सर स्वर्ण को सच मान लेते हैं और प्रलोभन की उस परत पर ही स्थिर बने रहते हैं। हालाँकि सच्चाई उस चमकदार और आकर्षकधारणा के नीचे छुपी हुई है। संगठन कठिन लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं, लेकिन कई बार प्रलोभन के प्रभाव से व्यक्ति या समूह उन लक्ष्यों को प्राप्त करने से चूक सकते हैं। नैतिक चरित्र का निर्माण, तथ्यात्मक निर्णय लेने की समझ, लोकाचार या मूल्य प्रणाली पर अडिग होना ही सफलता की यात्रा में आगे बढ़ा सकता है – और यह भी अनंत है!