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रूचि दीक्षित भोपाल।
मैं बहुत दिनों से सोच रही थी कि क्यों न घर और ऑफिस की भाग दौड़ से थोड़ा समय निकाल कर श्रीधाम वृंदावन हो आऊं। बहुत दिन हो चुके थे वृंदावन गए और फिर मुझे याद भी तो सताने लगती है उन कुंज गलियों की। जहां कभी श्रीकृष्ण अपने नन्हें-नन्हें चरणों से दौड़ते, गाय चराते, रास रचाते और तरह-तरह की लीलाएं किया करते थे। मैं वृंदावन पहुंच कर भूल जाती हूं जीवन की तमाम परेशानियां और दु:ख, याद रहते हैं केवल राधा-माधव। जब मैं पहली बार वृंदावन गई थी तो बहुत उत्साहित थी मन में कई तरह के प्रश्न थे, जिज्ञासाएं थी और असीम आनंद था। मैंने सुना था कि भगवान श्रीकृष्ण की परम भक्त मीरा बाई जी ने द्वारका जाने से पहले कुछ समय वृंदावन में बिताया था। मैं उस स्थान को देखना चाहती थी और मीरा बाई की स्मृतियों को महसूस करना चाहती थी। मेरे मन में मीरा बाई के लिए हमेशा से ही बहुत स्नेह और सम्मान रहा है और हो भी क्यों न, वे श्रीकृष्ण की प्रियसी जो ठहरीं। हां, मैं उन्हें भक्त से कहीं ज्यादा प्रियसी ही मानती हूं।
हां, तो मैं आपको बताना चाह रही थी, श्रीधाम वृंदावन में स्थित मीरा मंदिर के बारे में।
मीरा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान निधि वन के रास्ते में पड़ता है, शाहजी मंदिर से बाएं हाथ की गली में कुछ दूर चलने पर मीरा मंदिर का गेट आ जाता है। देखने में साधारण सा लगने वाला मंदिर अपने आप में असाधारण प्रतीत होता है। छोटे से द्वार से अंदर जाते ही सफेद रंग से पुती हुई दीवारे दिखाई देती हैं, सामने एक फव्वारा और कुछ सुंदर पौधे हैं। उसके बगल से ही दो-तीन सीढ़ियां चढ़ कर पहुंच जाते हैं उस प्रांगण में जहां कभी मीरा बाई बैठकर अपने ठाकुर जी को भजन सुनाया करती थी। इस स्थान की सबसे खास बात यह है कि यह उस परिवार का घर है, जिनके पूर्वजों ने मीरा बाई जी को यहां रहने के लिए स्थान दिया था। यहां पर सामने ही मीरा बाई जी के सेवायत राधा-कृष्ण विराजते हैं और सीधे हाथ की ओर मीरा बाई की भजन स्थली है। जहां उनकी एक सुंदर सी पुरानी पेंटिंग रखी हुई है, जिसके साथ ही रखे हुए हैं लकड़ी से बने हुए मंजीरे। ऐसा बताया जाता है कि ये वही मंजीरे हैं, जिन्हें बजा कर मीरा बाई झूम-झूम कर भजन गाया करती थीं। लकड़ी के उन मंजीरों के दर्शन करके अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है।
सामने की ओर दिखाई देने वाले छोटे से मंदिर में बीचों बीच विराजमान हैं श्रीकृष्ण और उनके एक ओर श्रीराधा और एक ओर मीरा बाई जी विराजित हैं। यहां उन्हें राधा-मनोहर जी के नाम से संबोधित किया जाता है। इसके साथ ही एक सिंहासन पर विराजमान है शालिगराम भगवान, जिनके बारे में एक कथा प्रचलित है। कहते हैं, कि मीरा बाई को उनके पति भोजराज की मृत्यु के बाद ससुराल में तरह-तरह से प्रताड़ित किया जा रहा था, एक बार उन्हें मारने के लिए राणा विक्रमादित्य ने टोकरी में छिपा कर दो विषैले सांप भेजे थे। मीरा बाई को बताया गया कि टोकरी में भगवान श्रीकृष्ण का चरणामृत रखा है, राणा विक्रमादित्य को विश्वास था कि मीरा जैसे ही यह सुनेंगी तत्काल ही टोकरी खोल लेंगी और सांप उन्हें काट लेगा। लेकिन यहां उनके विश्वास के उलट हुआ। जैसे ही मीरा ने टोकरी खोली वो सांप भगवान शालिगराम जी के रूप में प्रकट हो गए। मंदिर में विराजमान शालिगराम जी के ऊपर दो छेद दिखाई देते हैं पुजारी कहते हैं कि ये छेद सांप की आंखें है जो आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। इस मंदिर में अनुपम,अलौकिक और आनंददायक अनुभव होता है, मन ही नहीं करता कि वहां से लौटा जाए। ऐसा लगता है मानो मीरा आज भी वहां अपने राधा-मनोहर को भजन सुनाया करती हैं। मीराबाई भगवान श्री कृष्ण और उनकी खोज में 1524 में वृंदावन आयी थी। वह वृंदावन में 1524 से 1539 तक रही थीं। उसके बाद, उन्होंने वृंदावन छोड़ दिया और अपनी मृत्यु तक (वर्ष 1550) द्वारका में ही रही।