इंदौर। झाबुआ का नाम सुनते ही खूबसूरत फलिये और ऊँची-नीची पहाड़ियों के साथ वहां के भोले-भाले आदिवासियों की संस्कृति मन को रोमांच से भर देती हैं। अब यहाँ देशी-विदेशी सैलानी होम स्टे के जरिए इस संस्कृति को बेहतर तरीके से बखूबी देख और समझ पाएँगे।
आदिवासी संस्कृति को समझने की जिज्ञासा हर किसी के मन में होती है। हमारे देश सहित सुदूर विदेशों से भी जो पर्यटक आते हैं, उन्हें भी इसमें ख़ासी दिलचस्पी होती है। अब इसे सरकारी तौर पर बढ़ावा देने और इस क्षेत्र में बेहतर संभावनाओं को खंगाला जा रहा है। इसी क्रम में भोपाल में हुई एक कार्यशाला में ग्रामीणों और पर्यटन विशेषज्ञों सहित अफसरों ने ‘रूरल होमस्टे’ शुरू करने की कवायद की।
झाबुआ जिले के गाँवों में हर साल हजारों पर्यटक पहुँचते हैं। कुछ विदेशी सैलानी तो कई हफ़्तों या महीनों तक यहाँ रूककर इस आदिम सभ्यता और संस्कृति को जानने का जतन करते रहते हैं। इन्हीं पर्यटकों को आकर्षित कर आदिवासी अंचल में स्थानीय रोज़गार को बढ़ावा देने की कोशिशें अब तेज़ हो गई हैं। देश के नामी गिरामी संस्थानों में तकनीकी शिक्षा ग्रहण करने वाले पर्यटन विशेषज्ञ और गाँव के लोग पहली बार आमने सामने बैठकर एक दूसरे को समझने की कोशिश कर रहे हैं। यह कार्यशाला इसी कवायद का एक हिस्सा है।
सरकार की कोशिश है कि झाबुआ जिले के कुछ गांवों में ही ऐसे संसाधन और सुविधाएँ मुहैया कराई जाएँ जिनसे पर्यटक यहाँ गाँव की ज़िंदगी के बीच रहकर अध्ययन या भ्रमण कर सकें। इस उपक्रम का उद्देश्य है पर्यावरण और सांस्कृतिक पर्यटन के माध्यम से देश और सुदूर विदेशों के लोगों को आदिवासी गाँवों की समृद्ध संस्कृति और अनुकरणीय जीवन मूल्यों से अवगत कराना। इसी क्रम में खेड़ा और छागोला गाँवों में ‘रूरल होमस्टे’ को विकसित किया जायेगा। इसको बेहतर समझने के लिए अपने गाँव में सामाजिक नेतृत्व कर रहे हैं खेड़ा गाँव से दरियावसिंह भाबर और छागोला से हरिसिंह सिंघार के साथ नितिन धाकड़ ने मध्य प्रदेश टूरिज्म बोर्ड द्वारा आयोजित इस दो दिवसीय वर्कशॉप में भाग लिया।
इससे पहले यहाँ के भगोरिया सहित कुछ लोक उत्सवों में ऐसे प्रयास काफी सफल रहे हैं। यहाँ के खाद्यान्न, फल-फूल और सब्जियों को भी झाबुआ नेचुरल्स तथा चित्रकला, मूर्तिकला आदि को भी फिर से प्रकाश में लाने की भी मुहिम चल रही है। सरकार इनके ज़रिए मध्यप्रदेश में पर्यटन को विकसित करने पर जोर दे रही है।