लेखक डॉ आनंद शर्मा सीनियर आईएएस हैं और पूर्व मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी रहे हैं।
रविवारीय गपशप
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इन दिनों त्योहारों को लेकर एक अजीब सी गफ़लत होने लगी है , तिथियों का हेरफेर कुछ ऐसा होता है कि इंसान बड़े कश्मकश में रहता है कि दिवाली कब मनानी है ? अब दशहरे का ही सोचें रावण का वध कब होना है इसको लेकर भी अलग अलग विचार थे , कहीं तो लोगों ने ग्यारह तारीख़ को ही मना लिया , कहीं कल और कुछ लोग तो आज भी दशहरा है ऐसा कह रहे हैं । जबलपुर में जहाँ मेरी अधिकांश पढ़ाई हुई है , दशहरे पर होने वाले रावणदहन का कार्यक्रम दो तीन दिनों तक चलता है । आज पुराने शहर का तो कल गढ़ा का और फिर पंजाबी दशहरा और फिर राँझी का दशहरा । त्योहारों को लेकर असली उत्साह तो बच्चों में ही होता है । ग्वालियर में जहाँ मेरे बच्चे शैशव से किशोर वय तक आये , हर साल उन्हें दशहरा मैदान लेकर जाने का अलग रोमांच रहता था । बच्चों में विशेष आकर्षण था , दशहरा मैदान से चमकीले काग़ज़ों से मढ़े लकड़ी के खिलौने और ग़ुब्बारे लाना , जिसे वे हफ़्तों अपने दैनिक खेल में शामिल किया करते थे ।
प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते दशहरे पर रावण दहन के कार्यक्रम में हमारी एक ही चिंता होती कि मैदान में इकट्ठा हुआ सैलाब सही सलामत वापस घर को चला जाये । पर कई बार टेंशन कुछ दूसरी भी हो जाया करतीं । सागर में जब मैं कमिश्नर के पद पर पदस्थ था तो रावण दहन के मौक़े पर मुख्य अतिथि के रूप में राम और लक्ष्मण की पूजा करने के लिए मंत्री जी को निमंत्रित किया गया था । संयोग से दशहरे के एक दिन पहले ही बारिश हो गई थी और रावण का पुतला पर्याप्त सुरक्षा बंदोबस्तों के रहते भी भीग गया था । मुख्य अतिथि की पूजा के बाद जब रावण के पुतले के लिए बाण का संधान हुआ तो पुतला जलना चालू हुआ ही था कि आग बुझ गई । हम सब ने निगम कमिश्नर की ओर ऐसे देखा जैसे इसके पीछे उसका ही हाथ हो । निगम आयुक्त रामप्रकाश थे कहने लगे चिंता न करें अभी सब ठीक हो जाएगा । ना जाने कहाँ से इंतज़ाम कर रखे हुए किसी ज्वलनशील पदार्थ का छिड़काव किया गया और तब रावण का दहन होना आरंभ हुआ । ये और बात है कि पूरी तरह जलने में उस बरस रावण को दो दिन लगे ।
दशहरे पर एक और बड़ा काम जो पुलिस और प्रशासन के ज़िम्मे होता है , वो है प्रतिमा विसर्जन का , बिना जनहानि के ये संपन्न हो जाये इसकी फ़िक्र हमेशा लगी रहती है । सागर में इसे लेकर नये प्रयोग किए गए , नगर निगम ने एक बड़ी जेसीबी लगाई और लोगों को कहा कि वे अपनी प्रतिमा किनारे पर ही छोड़ दें और फिर उसे जेसीबी के सहारे गहरे पानी के अलग बनाये पूल में विसर्जित किया गया । प्रतिमाओं के विसर्जन के लिए निकलने वाले जुलूस में सबसे बड़ा जुलूस जबलपुर का होता है , विदिशा का नंबर उसके बाद है । जब मैं विदिशा में कलेक्टर था तो दशहरे के मौक़े पर एक बड़ी कश्मकश पूर्ण स्थिति उत्पन्न हुई । दरअसल प्रतिमा विसर्जन के दौरान इकट्ठा हुई प्रतिमाओं को क्रम में लगाने और उन्हें पुरस्कृत करने के लिए एक संस्था बनी हुई थी । दशहरे के ठीक पहले एक नई संस्था पंजीकृत हुई और उसने दावा किया कि इस बार रजिस्टर्ड होने के नाते वो ये काम करेगी । दूसरे दिन पुरानी संस्था ने भी सोसायटी कार्यालय में अपना पंजीकरण कराया और अपना दावा पेश कर दिया । मज़े की बात ये कि दोनों ही संस्थाएँ ज़िले के अलग अलग गुटों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों की थी । मैंने नगर पालिका के सी.एम.ओ. और एस.डी.एम. से कहा कि दोनों हो संस्थाओं के लोगों को बुला कर बैठक कर लो , शाम को बेनतीजा दोनों ही दलों के लोग अपने अपने दावे के साथ मेरे कार्यालय में आ गये । मैंने दोनों ही अध्यक्षों को अपने कक्ष में बुला कर बिठाया और कहा कि कल सुबह तक आप आपस में तय कर लें कि मिल कर कौन कौन सा काम आप करेंगे , अन्यथा आप दोनों की ज़िम्मेदारी का काम नगरपालिका करेगी ऐसा मैंने लिखित में आदेश कर दूँगा । सुबह तक समझौते के साथ दोनों संस्थाएँ अपने अपने कामों को बाँट कर मेरे समक्ष आ गयीं थीं और दशहरा बिना किसी विवाद शांति से संपन्न हो गया ।