लेखक ओपी श्रीवास्तव आईएएस अधिकारी हैं मध्य प्रदेश सरकार में एक्साइज कमिश्नर हैं तथा धर्म,दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
विज्ञान और धर्म के संबंध में सामान्य रूप से कह दिया जाता है कि विज्ञान तो तर्क, बुद्धि और विवेक पर आधारित है जबकि धर्म का आधार आस्था और विश्वास है। इस प्रकार बुद्धि-विवेक और आस्था-विश्वास को विरोधी मानने वाले लोग विज्ञान और धर्म को भी परस्पर विरोधी करार देते हैं। वहीं धर्म के नाम पर पाखंड और धंधे करने वाले लोग, जिन्हें तुलसीदास जी —धींग धरमध्वज धंधक धोरी – कहते हैं, आस्था-विश्वास के नाम पर अपने स्वार्थ साधने के लिए कुछ भी अनर्गल करना शुरू कर देते हैं। इसी का परिणाम है कोई धर्म के नाम पर हरी चटनी और समोसा खिला रहा है, कोई अपने धाम पर हर सप्ताह आने का आदेश दे रहा है, कोई सोशल मीडिया से आपकी जानकारी एकत्र करके आपको ही बताकर चमत्कारी होने का दावा कर रहा हैऔर कोई लाखों की भीड़ इकट्ठी करके अभिमंत्रित वस्तुएँ बॉंट रहा है और भीड़ इसी को धर्म मानकर भेड़चाल में शामिल हो रही है।
पाश्चात्य परम्परा में रीजन (तर्क) और फेथ (विश्वास) को विरोधी माना जाता है परंतु सनातन दर्शन में बुद्धि और विश्वास परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि पूरक हैं। जीवन में समय और परिस्थिति के अनुसार दोनों का अपना स्थान है ।
पहले हम विज्ञान के क्षेत्र में विचार करें। वैज्ञानिक, प्रकृति की किसी घटना को देखता है और उसके कारण पर विचार करके किसी सिद्धांत की कल्पना करता है और विश्वास करता है कि उसके द्वारा परिकल्पित किया गया सिद्धांत सही है, फिर तर्क, बुद्धि और विवेक का प्रयोग करते हुए उसकी पुष्टि वैज्ञानिक प्रयोगों और प्रकृति की घटनाओं के निरीक्षण के द्वारा करता है और तब उस पर दृढ़ विश्वास करता है। उदाहरण के लिए आइंस्टीन ने सापेक्षिता के सिद्धांत की कल्पना की और सोचा कि देश और काल (स्पेश एंड टाइम) गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से वक्र (कर्वेचर) हो जाता है। उन्होंने इस पर लम्बा शोध किया और गणितीय रूप से इसे सिद्ध किया। इसके बाद सैकड़ों वैज्ञानिकों ने ब्रह्माण्डीय घटनाओं का निरीक्षण करके इस सिद्धांत की पुष्टि की । यदि आइंस्टीन को अपने सिद्धांत की सत्यता पर विश्वास नहीं होता तो वह आगे काम करते ही क्यों ? मैडम क्यूरी को रेडियोधर्मिता की खोज को लेकर विश्वास न होता तो वह अपने जीवन को खतरे में डालकर वर्षों तक अनुसंधान कैसे कर पातीं ? इस प्रकार विज्ञान में साधारण विश्वास करना, फिर बुद्धि-विवेक से उसका परीक्षण करना और इसके बाद प्रयोगों से पुष्टि होने पर उस नियम में दृढ श्रद्धा का स्थान आता है।
धर्म भी ऐसा ही है। इसमें भी विवेक-बुद्धि के बाद ही श्रद्धा-विश्वास का स्थान आता है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है – ‘’शास्त्र के कथनों पर भी अंधविश्वास करना ठीक नहीं है। अपनी विचार शक्ति का प्रयोग करके देखना चाहिए कि शास्त्र में जो लिखा है वह सत्य है या नहीं । जिस तरह भौतिक विज्ञानों में प्रयोग करके सीखते हैं इसी प्रकार धर्म को भी जीवन में प्रयोग करके सीखना होगा।‘’
सनातन धर्म के ऋषियों ने कभी भी शिष्यों की तर्क-बुद्धि की उपेक्षा करके उनसे अन्धविश्वासी या मूढ़ भक्त होने का आग्रह नहीं किया। विश्व के किसी भी अन्य धर्म में शिष्य को गुरु से प्रश्न करने या असहमत होने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती। यह स्वतंत्रता केवल सनातन धर्म में है। गीता में अर्जुन ने कृष्ण को भगवान् जानने के बाद भी प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये और कृष्ण ने भी विस्तार से प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दिया। शंकराचार्य जी कहते हैं कि – ‘’शास्त्र व गुरु के वचनों में वह विश्वास जिसके द्वारा सत्य का ज्ञान होता है श्रद्धा कहलाता है।‘’ इस प्रकार श्रद्धा, अंधविश्वास नहीं है वरन् बुद्धि की वह सामर्थ्य है जिसके द्वारा सत्य का ज्ञान होता है।
एक सामान्य उदारहण लें। हम किसी होटल में जाते हैं तो प्रारंभिक रूप से यह विश्वास करके जाते हैं कि भोजन स्वादिष्ट होगा। जब भोजन करते हैं (डायरेक्ट एक्सपीरिएंस) तब निष्कर्ष निकालते हैं कि हमारा विश्वास सही था या नहीं। यदि हम प्रत्येक होटल पर शंका ही करते रहें कि कहीं इसने खाने में जहर तो नहीं मिला दिया होगा तो हम कहीं खाना ही नहीं खा पाऍंगे। कहीं तो प्रारंभिक विश्वास करना होगा। परंतु भोजन करे बगैर ही मान लें कि होटल का खाना अत्यंत स्वादिष्ट है तो यह अंधविश्वास होगा।
जैसे भोजन करना जरूरी है परंतु यह नहीं हो सकता कि सदैव भोजन ही करते रहें इसी प्रकार शंका जरूरी है पर सदैव शंकालु नहीं रह सकते, विश्वास जरूरी है पर अंधविश्वासी नहीं हो सकते । सामान्य रूप से धर्म के नाम पर फैली कुरीतियों का बचाव करने के लिए कहने लगते हैं कि धर्म तो श्रद्धा विश्वास का विषय है। किसी भी तर्कपूर्ण बात को आस्था पर आक्रमण मान लिया जाता है। सत्य दोनों के बीच में है। जीवन में आस्था-विश्वास का उतना ही महत्व है जितना बुद्धि-विवेक का। न कोई कम है न कोई ज्यादा। बस समय के अनुसार दोनों का रोल बदलता रहता है।
गीता में जहाँ एक ओर कहा है कि – अज्ञानी, श्रद्धाहीन और संशय करनेवाला नष्ट हो जाता है – अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति (4.40), वहीं यह भी कहा है कि श्रद्धावान् को ज्ञान मिलता है – श्रद्धावान लभते ज्ञानम् (4.39), बुद्धि का आश्रय ग्रहण करने की शिक्षा दी है – बुद्धौ शरणमन्विच्छ (2.49)। बुद्धि के बारे में कई स्थानों पर गीता कहती है – ददामिबुद्धियोगम् (10.10), बुद्धियोगमुपाश्रित्य (18.57) आदि। सनातनधर्म के हर महापुरुष ने जहाँ एक ओर श्रद्धा का अवलंबन किया वहीं दूसरी ओर उच्च कोटि के बौद्धिक चिन्तन का परिचय दिया। धर्म के बारे में सारी विसंगतियों की जड़ है बुद्धि-विवेक और श्रद्धा-विश्वास के बीच भ्रमित रहना। एक अवस्था आती है जब ईश्वर को तर्क बुद्धि से परे जान लिया जाता है। तुलसीदास जी के शब्दों में – ‘’राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी’’। परंतु यह बाद की अवस्था है जब बुद्धि-विवेक का उपयोग करके राम को अनुभव में उतार लिया जाता है। तब दृढ़ श्रद्धा और विश्वास होता है जिसे शंकर और पार्वती के समान उपमा दी गई है – भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
इसी प्रकार धर्म की यात्रा भी गुरु या शास्त्र के कथनों पर प्रारंभिक विश्वास से प्रारंभ होकर तर्क, बुद्धि और विवेक के सहारे आगे बढ़ती है । जैसे ही अनुभव (डायरेक्ट एक्सपीरिएंस) की शुरूआत होती है वैसे ही श्रद्धा और विश्वास का रोल शुरू हो जाता है। विडम्बना यह है कि धर्म की नर्सरी में प्रवेश लेते ही श्रद्धा और विश्वास की बात कहनेवाले वैसे ही हैं जैसे पहली कक्षा का विद्यार्थी अक्षरज्ञान सीखने की जगह पीएचडी की थीसिस लिखने की बात करने लगे। इसलिए धर्म,अंधविश्वास और कुरूतियों में बदल जाता है।
बिना प्रारंभिक विश्वास के कोई कार्य प्रारंभ नहीं किया जा सकता और व्यक्तिगत अनुभव के बिना विश्वास में दृढ़ता नहीं आती। धर्म प्रश्न करने से शुरु होता है और बुद्धि-विवेक के प्रयोग द्वारा स्वयं उत्तर प्राप्त करने के बाद दृढ़ श्रद्धा-विश्वास पर समाप्त होता है। अधर्म उत्तर से शुरू होता है और अंधविश्वास पर समाप्त होता है। बस इस अंतर को समझ लें तो पहचान सकेंगे क्या धर्म है और क्या नहीं। कौन संत है और कौन धंधक धोरी। सारा जीवन बुद्धि-विवेक और श्रद्धा-विश्वास के संतुलन पर टिका है। बुद्धि-विवेक सीढ़ी है तो श्रद्धा-विश्वास मंजिल। बिना सीढ़ी के मंजिल पर नहीं पहुँचा जा सकता। इसलिए धर्म के क्षेत्र में भी बुद्धि-विवेक प्रथम शर्त है तभी शंकर-पार्वती रूपी श्रद्धा-विश्वास प्राप्त होते हैं।