लेखिका डॉ. अनन्या मिश्र, इंदौर आईआईएम में मैनेजर – कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन एवं मीडिया रिलेशन के पद पर हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
पिछले दिनों स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों के चलते कुछ बच्चों से मैंने उनके सबसे पसंदीदा और प्रेरित करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम पूछे। आश्चर्य की बात यह थी, कि एक ने भी किसी महिला स्वतंत्रता सेनानी का नाम नहीं लिया। क्या उन्हें पता ही नहीं था? और अगर नहीं पता, तो आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी हम क्या पूर्ण रूप से स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले प्रत्येक बलिदानी के प्रति आदरांजलि देने योग्य भी हैं?
आज 15 अगस्त को हमारा राष्ट्र, हमेशा की तरह, पारंपरिक आधिकारिक उत्सव मनाएगा। लेकिन सच्चाई यह है वर्तमान युवा पीढ़ी को आजादी का शायद उतना आभास नहीं है। मात्र वे लोग जिन्होंने ब्रिटिश झंडे को उतरते और भारतीय तिरंगे को उसकी जगह लेते देखा – उनके लिए स्वाधीनता का महत्व आज भी उतना ही है। सत्य तो यह है कि इसमें महिलाओं का भी अप्रतिम योगदान रहा है। भारत ने औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों से खुद को मुक्त करने के लिए कैसे संघर्ष किया, इसकी कहानियां आज भी हमारे दिलों में गूंजती हैं। 1857 के विद्रोह से लेकर 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति तक लाखों स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को ब्रिटिश तानाशाही से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया।
जिस समय महात्मा गांधी भारतीयों को औपनिवेशिक शासन का शांतिपूर्ण विरोध करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे और स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों को पीछे हटने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रहे थे, उस समय कई भारतीय महिलाएं चुपचाप स्वतंत्रता आंदोलन को भीतर से आकार दे रही थीं। जातिवाद को समाप्त करने के आह्वान से लेकर शराबबंदी तक; वे अत्याचारी शासन को समाप्त करने के लिए साम्राज्यवादियों से लड़ने की चुनौती ले रही थीं। कुछ ने अपनी कविताओंसे ‘स्वदेशी‘ आंदोलन का आह्वान किया, जबकि अन्य ने सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए एक खंडित राष्ट्र में समुदायों का निर्माण किया। निःसंदेह यह लड़ाई महिलाओं की भागीदारी के बिना अधूरी होती। आइए हम इस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर कुछ महिला स्वतंत्रता सेनानियों के समृद्ध और अक्सर भूले-बिसरे इतिहास का स्मरण करें।
मातंगिनी हाजरा: ‘गांधी बूढी’ के नाम से प्रसिद्ध मातंगिनी ने भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक जुलूस के दौरान उन्हें तीन बार गोली लगी, किन्तु फिर भी वे भारतीय ध्वज के साथ आन्दोलन का नेतृत्व ‘वन्दे मातरम्’ के उद्घोष के साथ करती रहीं। कोलकाता में पहली बार 1977 में एक महिला की प्रतिमा लगायी गयी,और वह प्रतिमा मातंगिनी की थी। प्रतिमा उस स्थान पर स्थापित की गई है जहां तामलुक में उनकी हत्या की गई थी। कोलकाता में हाजरा रोड भी उन्हीं के नाम पर है।
कनकलता बरुआ: ‘बीरबाला’ कनकलता असम की एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। उन्होंने 1942 में बरंगाबाड़ी में भारत छोड़ो आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और हाथ में राष्ट्रीय ध्वज लिए महिला स्वयंसेवकों की पंक्ति के शीर्ष पर खड़ी रहीं। उन्होंने “ब्रिटिश साम्राज्यवादियों वापस जाओ” के नारे लगाकर ब्रिटिश-प्रभुत्व वाले गोहपुर पुलिस स्टेशन पर झंडा फहराने का लक्ष्य रखा था, जो अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। उन्होंने समझाने का प्रयास किया कि उनके इरादे नेक थे, किन्तु ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें और उनके साथियों को गोली मार दी और मात्र 18 साल की उम्र में उन्होंने देश के लिए अपने प्राण त्याग दिए।
मूलमति : शायद हम इन्हें इस नाम से जानते भी न हों, किन्तु उन्होंने उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में राम प्रसाद बिस्मिल की मां के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राम प्रसाद 1918 के प्रसिद्ध मैनपुरी षडयंत्र मामले और 1925 के काकोरी षडयंत्र में शामिल क्रांतिकारी थे। 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में उन्हें गिरफ्तार कर फांसी पर लटका दिया गया था। मूलमति एक सीधी-सादी महिला थीं और फांसी से पहले अपने बेटे को देखने गोरखपुर जेल भी गई थी। राम प्रसाद अपनी माँ को देखकर रो पड़े, किन्तु वे अडिग रहीं। वह अपनी प्रतिक्रिया पर दृढ़ थी और उन्होंने कहा कि उन्हें रामप्रसाद पर गर्व है। एक सार्वजनिक सभा में एक भाषण में उनकी मृत्यु के बाद, उन्होंने अपने दूसरे बेटे का हाथ उठाया और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन की पेशकश की। स्वतंत्रता संग्राम में उनके अटूट समर्थन और विश्वास के बिना, राम प्रसाद बिस्मिल के पास अपने चुने हुए रास्ते पर चलने का संकल्प नहीं हो सकता था। इसका सम्पूर्ण श्रेय मूलमति को ही जाता है।
बसंती देवी: 23 मार्च, 1880 को जन्मी बसंती देवी ने कार्यकर्त्ता चित्तरंजन दास की 1921 में गिरफ्तारी और 1925 में मृत्यु के बाद, विभिन्न आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया और स्वतंत्रता के बाद भी सामाजिक कार्य जारी रखा। 1973 में उन्हें पद्म विभूषण मिला। सुभाष चंद्र बोस बसंती देवी को अपनी दत्तक मां मानते थे और राजनीतिक गुरु चित्तरंजन दास के निधन के बाद वे अक्सर उनसे सलाह मांगते थे।
उमाबाई कुंडापुर: ‘भगिनी मंडल‘ की संस्थापक और हिंदुस्तानी सेवा दल की महिला विंग की नेता उमाबाई ने 1924 में डॉ. हार्डिकर (हिंदुस्तानी सेवा दल के संस्थापक) को अखिल भारतीय कांग्रेस के बेलगाम सत्र में मदद करने के लिए 150 से अधिक महिलाओं की भर्ती में मदद की। 1932 मेंउन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और चार महीने तक यरवदा जेल में रखा गया। जब वह जेल में थी, तब अंग्रेजों ने कर्नाटक प्रेस को जब्त कर लियाऔर उनके स्कूल को सील कर, एनजीओ ‘भागिनी मंडल‘ को गैरकानूनी घोषित कर दिया।
कमलादेवी चटोपाध्याय: एक विचारक कमलादेवी चटोपाध्याय: के तौर पर, थियेटर में रूचि रखने वाली कमलादेवी गांधी या अंबेडकर से कम नहीं थीं। इन्होंने ही महात्मा गांधी से सत्याग्रह में औरतों को शामिल करने की मांग की थी। आज़ादी मिलने तक कमलादेवी कई बार जेल गयीं, कभी गाँधी के नाम का नारा लगाते हुए नमक बेचने के लिए तो कभी भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए। 1928 में वे ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी में चुनी गयीं और 1936 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की अध्यक्ष बनी। इसके बाद 1942 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्ष बनीं और महिलाओं को मैटरनिटी लीव देने व उनके श्रम को नज़रंदाज़ न करने की बात बेबाकी से रखी।
अरुणा आसफ़ अली: भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत करने वाली अरुणा ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का झंडा फहरा कर अद्भुत साहस का परिचय दिया था । 1930 के नमक सत्यग्रह के दौरान अरुणा ने भरी सभाओं को सम्बोधित कर सबके मन में देशभक्ति की भावना को मजबूत किया, जिसके बाद वे जेल भी गयीं। जेल में रहते हुए उन्होंने कैदियों के साथ हो रहे बुरे बर्ताव के विरोध में भूख हड़ताल कर डाली। अरुणा को भारतीय स्वंतंत्रता संग्राम की ग्रांड ओल्ड लेडी भी कहा जाता है।
राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह खान के नाम से ही हमें काकोरी कांड स्मरण हो आता है, हालांकि, काकोरी डकैती के लिए बंदूक और पिस्तौल की आपूर्ति करने वाली महिला राजकुमारी गुप्ता का इतिहास के पन्नों में शायद ही कोई वर्णन हो। इसी प्रकार, अंग्रेजों से लड़ने के लिए घर की सीमा के भीतर बम कैसे बनाए गए, इसकी कई कहानियां हैं।लेकिन क्या आप जानते हैं कि रानी वेलु नचियार ने अंग्रेजों को निरस्त्र करने के लिए भारत में सबसे पहले आत्मघाती हमले की योजना बनाई थी? जब रानी वेलु नचियार को पता चला कि अंग्रेजों ने उनके गोला-बारूद और हथियार कहाँ रखे हैं, तो उनकी दत्तक बेटी कुयली ने खुद को तेल में भीग लिया और ब्रिटिश गोदाम में रखे गोला-बारूद को नष्ट करने के लिए खुद को आग लगा ली। एक युवा कप्तान लक्ष्मी सहगल को नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय राष्ट्रीय सेना में एक महिला दल – रानी झांसी रेजिमेंट का नेतृत्व करने के लिए चुना था। 1942 में उषा मेहता एक भूमिगत रेडियो स्टेशन – सीक्रेट कांग्रेस रेडियो स्थापित करने लिए दो सप्ताह तक छुपी रहीं। हालाँकि यह रडियो कुछ महीनों के लिए ही काम कर सका, लेकिन इसने लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए महात्मा गांधी के आह्वान को फैलाने में मदद की।
निस्संदेह, पुरुषों के लिए इन आंदोलनों का हिस्सा होना महत्वपूर्ण था,लेकिन महिलाओं को तो आंदोलन तक पहुँचने से पहले ही समाज की अनगिनत बेड़ियों को तोड़ना पड़ता था! इसके बावजूद, कई भारतीय महिलाओं ने इस लड़ाई में स्वतंत्रता सेनानी के रूप में कार्य कर देश को आजादी दिलाई और उनके इस त्याग को भुलाया नहीं जा सकता।