लेखिका डॉ. अनन्या मिश्र, , आईआईएम इंदौर में सीनियर मैनेजर – कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन एवं मीडिया रिलेशन के पद पर हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
लेख सत्य घटनाओं से प्रेरित और कई चर्चाओं पर आधारित है और अगर आपको लगता है कि आपके बारे में है तो शायद होगा ही। क्योंकि जानते सब हैं, बताता कोई नहीं और ज्ञान ‘होता सबके पास है, देता कोई नहीं’। जातिवाचक संज्ञा ‘ऑफिस’ लिखी है लेकिन आपका भी ऑफिस हो सकता है ये।
तो एक ऑफिस में एक वेबसाइट डेवलपमेंट पर काम चल रहा था। सब अपने-अपने लैपटॉप पर भिड़े हुए थे। अलग-अलग टीमें, अलग-अलग काम। सुबह का माहौल था। ग्यारह बजे के करीब सभी ने टी-ब्रेक लिया। कुछ समय बाद सब लौट कर आए और अचानक टीम में काम करने वाले चार लोगों के निर्णय और काम करने का तरीका बदल गया। दो सदस्यों को कुछ समझ ही नहीं आया।
क्यों? छह सदस्यों वाली टीम में से चार लोग टी ब्रेक में सुट्टा मारने बाहर गए थे, दो टीम के सदस्यों को छोड़ कर, जो सुट्टा नहीं मारेंगे, बस चाय या कॉफ़ी ही पिएंगे। पहले तो सभी साथ में जाते थे – कोई सिगरेट फूंके या ना फूंके। धीरे-धीरे सिगरेटबाजों ने इन ‘बच्चों’ को बिना बताए ही अपनी ‘सुट्टा-बैठक’ शुरू कर दी। ए.सी. ऑफिस में बैठ कर, सभी की सुझावों को साथ ले कर बनाई गयी योजना अचानक एक ‘क्विक सुट्टा ब्रेक’ में धुआं-धुआं हो जाती और ऑफिस लौट कर माहौल, योजना, प्रक्रिया, निर्णय – सब बदल जाते। जो निकोटिन के नशे में उड़ा नहीं, उसका होश वाला दिमाग काम बेवजह क्रैश हो जाता।
‘हाँ, चलो यही तय रहा। तो हम कल सुबह इस प्रोजेक्ट पर काम करेंगे और उसके बाद इसकी मार्केटिंग की योजना बनाएंगे। इस बारे में आप सब सोच कर आना कि कैसे किया जा सकता है।’ – एक कॉर्पोरेट ऑफिस के बॉस ने आखिरी मीटिंग में कहा। अगले दिन सब अपनी-अपनी तैयारी से आए। या ऐसा लग रहा था कि ‘जोश इज़ हाई’ (या शायद सब ही हाई हैं)।
पता चला मार्केटिंग प्लान तो रात में ही तय हो गया। ड्रिंक्स एंड डिनर पर। इस ख़ास ‘आफ्टर पार्टी’ के माफिक हुआ अन-ऑफिशियल मीटिंग में जो नहीं गए, या यूँ कहें कि जिन्हें बताया ही नहीं गया क्योंकि वे ड्रिंक नहीं करते, उन्हें शामिल नहीं किया गया। मतलब उन्होंने रात भर अपनी सुध-बुध लगा कर जो रिसर्च की, डॉक्यूमेंट तैयार किए, वो बिना ड्रिंक के पचेंगे नहीं। एक-आध सलाह सुन ली जाएगी शायद।
एक अन्य संस्थान में किसी कार्यक्रम की योजना बन रही थी। मेहमान आने थे। एक ने आईडिया दिया। उसपर कुछ समय विचार-विमर्श हुआ। ऐसा कर लेंगे। वैसा कर लेंगे। मेहमानों को यहां घुमा देंगे। वहां शॉपिंग करा देंगे। वहां खाना खिला देंगे। फेहरिस्त तैयार हो रही थी। लेकिन अधूरी लग रही थी। कुछ तोहफे देने हैं क्या? नहीं नहीं। हमारे यहां महंगे तोहफे नहीं देते। सम्मान और स्नेह देते हैं बस।
कार्यक्रम जिस दिन हुआ, उस दिन तक अधूरी ही लगी। अगले दिन मेहमानों के कमरे साफ़ किए गए। अरे, सबको ढेर सारे सम्मान और स्नेह के साथ मदिरा की बोतलें भी दी थीं। तोहफा है भाई। जिस व्यक्ति ने आईडिया दिया था, उसे इस बारे में कोई आईडिया नहीं। कहने को आयोजक और समन्वयक वही, लेकिन मेहमानों के लिए अचानक महत्वपूर्ण कोई और हो गया। वो जिसने जाम दिला दिया। सबसे पहले विचार रखने, सारा काम करने वाले का रोल ही ख़त्म। अब जलवा किसी और का। रिश्ता वही, सोच नयी। वह पहले वाला बिना मदिरा पान किए बेतहाशा घूम रहा।
हम इंसान स्वाभाव से सामाजिक हैं। हमें आदत है समूह बनाने की। मुंबई जाओ, कोई इंदौर या मध्य प्रदेश वाला मिल जाए – अरे भिया हम भी! अमेरिका जाओ, कोई भारत वाला मिल जाए – अरे हम भी भारतीय। हार्ले डेविडसन या एवेंजर चलाने वालों की नज़रें मिलती हैं तो ये बंधन तो प्यार का बंधन है। एक ही ब्रीड का पालतू घर में हो तो रिश्ता तय हो जाएगा – इंसानों का भले ही इतनी आसानी से न हो। धर्म-जाति-क्षेत्र-भाषा की तो अभी बात भी मत कीजिए। एअरपोर्ट के वेटिंग रूम, रेल के जनरल डिब्बे और सिटी बस में कुछ समय गुजारेंगे जो समझ जाएंगे कि हम समूह बना लेते हैं।
दारू-सुट्टा भी समूह बनने का एक मेट्रिक बन चुका। असल में अल्कोहलिक नहीं वर्काहोलिक बन चुके हैं। ऑफिस के बाद पार्टी के लिए जाएंगे तो भी चर्चा ऑफिस की ही करेंगे। कल की योजना, एक महीने बाद का प्रोजेक्ट, प्रमोशन, डिमोशन, राजनीति। अलग किस्म का दोस्ताना है। अन-औपचारिक रिश्ते बनाने का उतावलापन। जो बिज़नेस डील सभ्यता से दिन में चर्चा कर के नहीं हो रही थी वो दो शॉट लगा कर हो जाएगी और बिग शॉट बन जाएंगे आप। जो पेपर ऑफिस की टेबल पर रखे-रखे धूल खा रहा था, उस पर अचानक पेड़ के नीचे वाली टपरी पर हस्ताक्षर हो जाएंगे। जो खबर बड़े स्तर पर सबको बतानी थी, वो एक रात पहले अचानक थोड़ी सी छलक जाएगी और जिसने जाम चखा भी नहीं वो बेवजह झूमेगा कि ये कैसे-क्यों-कब हो गया।
ऐसा नहीं है कि योग्यता कि कमी है। ऐसा भी नहीं है कि अगर पी और फूंक रहे हो तो ही जिंदा हो तुम वरना तो किसी काम के नहीं। सही और गलत की कोई बात भी नहीं। लेकिन बड़े क्षेत्र में फैले ऊंची इमारतों वाले इन ऑफिसों में बस इन दो आधारों पर योग्य कर्मचारियों, सहकर्मियों, अधीनस्थों को बॉयकॉट कर देना – ये फ़ालतू का जातिवाद अपनी जड़ें फैला रहा है। भाई हम फूंकेंगे नहीं लेकिन वहां खड़े हो कर सेंटर फ्रेश चबा लेंगे। ड्रिंक नहीं करेंगे लेकिन डिनर तो कर लेंगे ना। लेकिन इसमें कोई आरक्षण नहीं मिलेगा।
लॉकडाउन के बाद वर्क फ्रॉम होम आया, फिर हाइब्रिड और फिर वर्क फ्रॉम एनीव्हेर। फिर ग्रेट रेसिगनेशन, मूनलाइटिंग, क्वायट क्विटिंग। नौकरी मिलने का एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया भी बदला। लेकिन इस बदलते परिप्रेक्ष्य में शायद अब रिक्रूटमेंट फॉर्म में लिखा होना चाहिए – एजुकेशन, कौशल, उम्र, निवास, वर्क-एक्सपीरियंस, जनरल, एससी, एसटी, ओबीसी, और फिर – चलेगा? पिएगा? सुट्टा मारेगा? कबाब? शबाब? रेफरेंस दे। वरना चल, यहाँ तेरा लिए कोई वेकेंसी नहीं।