डॉ नरेंद्र दाभोलकर की पुण्यतिथि 20 अगस्त पर विशेष
अंधश्रद्धा का निर्मूलन ही धर्म पालन की प्रथम सीढ़ी है
लेखक ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता
एक्सपोज़ टुडे, भोपाल।
शब्दकोश में आस्तिक और नास्तिक को परस्पर विरोधी माना जाता है। आस्तिक वह है जो ईश्वर के होने पर विश्वास करता है और नास्तिक वह है जो विश्वास नहीं करता है। आस्तिक व्यक्ति ईश्वर की खोज करना चाहता है इसलिए पहले ही मान लेता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। यदि ईश्वर का अस्तित्व मानेंगे नहीं तो खोज का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा। परंतु जब यह विश्वास, अंधविश्वास में बदल जाता है तो धर्म की उपलब्धता तो दूर की बात पूरा जीवन ही कूपमंडूक बनकर तर्क, विज्ञान से दूर होकर नरक बन जाता है। धर्म के नाम पर धंधा करनेवाले लोग अंधविश्वासों की फसल को निंरतर खाद-पानी देकर पालते-पोषते रहते हैं।
डॉ नरेंद्र दाभोलकर ने जीवन भर इन्हीं कुरूतियों, पाखंडों और अंधविश्वासों का विरोध किया। उन्होंने समाज से अंधश्रद्धा उन्मूलन करने, समाज को विवेकवान बनाने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए तैयार करने में अपना पूरा जीवन होम कर दिया। उन्होंने अपने जीवन में अंधविश्वास उन्मूलन, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विवेकवाद पर दर्जन भर से ज्यादा किताबें लिखीं, हजारों लेख लिखे और हजारों व्याख्यान दिये। वे केवल लिखने पढ़ने तक ही सीमित नहीं थे। उन्होंने 1989 में अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की स्थापना की और उसके जरिये महाराष्ट्र में अंधविश्वास उन्मूलन का सक्रिय आंदोलन चलाया। समिति की 200 से अधिक शाखाऍं पूरे महाराष्ट्र में कार्यरत हैं। उनका आंदोलन बाबावाद, भूत-प्रेत, टोना-टोटका के विरुद्ध सक्रिय हस्तक्षेप था। धीरे-धीरे यह आंदोलन अंधविश्वास उन्मूलन का शास्त्रीय विचार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, धर्मनिरपेक्ष और विवेकवादी विचारधारा का अग्रदूत बन गया। डॉ दाभोलकर ने लिखा है – ”अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति विवेक-शक्ति को संगठित कर सामाजिक जीवन में शांतिपूर्ण हस्तक्षेप की हिमायती है ताकि आज का सामाजिक जीवन भविष्य में और बेहतर बन सके।”
जितनी तेजी से दाभोलकर ने अपना काम किया उतनी ही तेजी से उन्हें धर्मविरोधी का तमगा दिया गया और उनके दुश्मन बढ़ते गये। डॉं दाभोलकर को धर्म को नकारनेवाला माना जाने लगा परंतु उन्होंने कई बार कहा है कि –‘मैं ही सच्चा धार्मिक हूँ’। उनका मानना था कि वे विवेक के साथ नीतियुक्त जीवन जीते हैं इसलिए धार्मिक हैं। वे संतों और समाजसुधारकों की विरासत स्वीकार करते थे और उनके द्वारा बताई गई उदात्त धर्मिकता के समर्थक थे। उनका वैचारिक विरोध उन लोगों के साथ था जो धर्म का अर्थ चमत्कार, पाखंड, टोना-टोटका आदि ही मानते थे। इस विरोध का मूल्य उन्हें अपनी जान देकर चुकाना पड़ा।
आज की आधुनिक शिक्षा प्राप्त अधिसंख्यक लोग विश्वास को तर्क और विज्ञान का विरोधी मानते हैं। प्रश्न यह है कि क्या विश्वास सदैव तर्क या बुद्धि का विरोधी होता है? पाश्चात्य जगत में श्रद्धा और बुद्धि (फेथ एंड रीजन) को विरोधी माना जाता है। वे मानते हैं कि बिना विचारे किसी बात को सत्य मानकर स्वीकार कर लेना विश्वास (फेथ) है जबकि विज्ञान तर्क व बुद्धि (रीजन) पर आधारित है। इसका कारण यह है कि पाश्चात्य सभ्यता जिन इब्राहमिक धर्मों को मानती है वे एक पुस्तक और ईश्वर के एक दूत पर विश्वास करते हैं। वहॉं इन पर संदेह की कोई गुंजाइश नहीं होती। इसलिए जब गैलीलियो ने बताया कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है न कि सूर्य पृथ्वी का, जैसा कि बाइबल में लिखा है, तो उसे कारावास में डाल दिया गया। यहॉं धार्मिक विश्वास व वैज्ञानिक गवेषणा को परस्पर विरोधी माना गया। परंतु भारतीय दर्शन में श्रद्धा या विश्वास तथा बुद्धि परस्पर विरोधी नहीं माने जाते । हमारे देश में भी ऋषियों ने उच्च कोटि का बौद्धिक चिंतन किया परंतु उसके साथ ईश्वर के प्रति अपार श्रद्धा भी रखी। वैज्ञानिक अपने अनुसंधान कार्य में बुद्धि का प्रयोग करते हैं जबकि अनुसंधान की प्रक्रिया पर श्रद्धा भी रखते हैं।
भारत में सभी तरह के दर्शनों का सम्मान किया गया। चार्वाक जैसे भौतिकवादी, जो कहते थे कि इस जीवन में खूब मौज मस्ती करो, ऋण लेकर घी पीओ क्योंकि मरने के बाद कौन यहॉं वापस आना है- को ऋषि का दर्जा दिया गया। यौन क्रियाओं और मनोविज्ञान के ज्ञाता वात्स्यायन को महर्षि कहा गया। भारतीय दर्शन मानता है कि विरोधी विचारों का विवेचन करके ही हम अपने विचारों को परिष्कृत कर सकते हैं। संत कबीर ने लिखा है -‘निंदक नियरे राखिए’। निंदा करनेवाले आसपास रहेंगे तो हमें अपने स्वभाव की कमियॉं पता चल पाऍंगीं तभी हम उन्हें ठीक कर पाऍंगे। यही स्थिति धर्म के साथ है। धर्म में श्रद्धा विश्वास जरूरी है परंतु हमें सावधान करने के लिए नास्तिक और तर्कशील विचार भी आवश्यक हैं तभी हम अंधविश्वास के कुँए में गिरने से बच पाऍंगे। धर्म तो परम विज्ञान है। वह तो अनुभूति पर जोर देता है जो आपको स्वयं करना है। उसमें अंधविश्वास की कोई जगह ही नहीं है। पीली धातु के ढ़ेर में पीतल को पहचानना सीखेंगे तभी सोने का चयन कर पाऍंगे। इसी प्रकार अंधश्रद्धा समाप्त होने पर ही सच्ची श्रद्धा की दिशा में गति होती है। श्री अरविंद के शब्दों में – ‘आध्यात्म की यात्रा में व्यक्ति पहले नास्तिक बनता है और उसके बाद ईश्वर की ओर खिंचाव प्रारंभ होता है।‘
धर्म परम विज्ञान है। धर्म हमारी निजी अनुभूति की बात करता है। अनुभूति के लिए प्रयास स्वयं करना होगा। इसलिए ईश्वर पर विश्वास और उस पर सक्रिय कार्य करना आवश्यक है। दूसरे के कहे सुने पर अंधविश्वास करने का अर्थ है कि हम स्वयं क्रियाशील नहीं हैं। और यदि हम स्वयं प्रयास नहीं करते हैं तो हमें स्वयं के सत्य की अनुभूति कैसे होगी? विश्वास धर्म का अनिवार्य अंग है तो अंधविश्वास दुश्मन। इसलिए धर्म में अंधविश्वास या अंधश्रद्धा घुसाने वाले लोग ही सच्चे धर्म विरोधी हैं।
धर्म में ही नहीं सामान्य जीवन के लिए भी श्रद्धा और विश्वास जरूरी है। यदि वैज्ञानिकों को अपने प्रयासों की सफलता का विश्वास नहीं हो, प्रयोगविधियों पर श्रद्धा न हो तो वह वर्षों कठिन प्रयोग कर पाऍंगे ? तुलसीदास जी कहते हैं – भवानी शंकरौ वन्दौ श्रद्धा विश्वास रूपिणो । श्रद्धा और विश्वास यदि पार्वती और शंकर हैं तो अंधश्रद्धा और अंधविश्वास ऐसे दुष्ट प्रेत और पिशाच हैं जो व्यक्ति को कूपमंडूक और अतार्किक बना देते हैं।
डॉं दाभोलकर के प्रगतिशील कार्यों से धर्म के नाम पर ढ़ोंग का धंधा चलाने वालों के हितों पर चोट पहुँची। डॉ दाभोलकर को कई बार धमकियॉं दी गईं। पर वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और अंधश्रद्धा निर्मूलन के कार्यों पर डटे रहे। 20 अगस्त 2013 को उनकी हत्या कर दी गई। हत्यारों ने सोचा होगा कि दाभोलकर की हत्या से उनके विचारों की हत्या हो जाएगी। गांधी के हत्यारों ने भी ऐसा ही सोचा था। पर हुआ ठीक उल्टा। उनकी हत्या की देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया हुई । उनके कार्य को राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किया गया और उन्हें मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया। महाराष्ट्र सरकार ने भी महाराष्ट्र अंधविश्वास उन्मूलन अधिनियम 2013 पारित कर श्री दाभोलकर कि विचारों को कानूनी आधार प्रदान कर दिया।
डॉं दाभोलकर की हिन्दी में अनूदित तीन पुस्तकें अंधविश्वास उन्मूलन – विचार, अंधविश्वास उन्मूलन – आचार तथा अंधविश्वास उन्मूलन – सिद्धांत हैं। सभी आस्तिक लोगों को यह तीन पुस्तकें जरूर पढ़ना चाहिए तभी वे ईश्वर के मार्ग से अंधविश्वास रूपी बाधाऍं दूर कर श्रद्धा विश्वास रूपी पार्वती और शिव की मदद से परम सत्य की अनुभूति कर सकेंगे। तभी वे समझ सकेंगे कि दाभोलकर जैसे लोग धर्म के विरोधी नहीं हैं वल्कि सच्चे धर्म के सहायक हैं। इस दृष्टि से हमें डॉ नरेंद्र दाभोलकर जी का सदैव आभारी होना चाहिए।
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(14.08.21)
ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता
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