लेखक ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी व
धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं।
राष्ट्रीय संग्रहालय में धार्मिक आस्थाऍं।
मनुष्य अपने अतीत का मोह नहीं छोड़ पाता । एक ओर वह अतीत के स्वर्णिम दिनों में डूबा रहना चाहता है तो दूसरी ओर अतीत से शिक्षा लेकर भविष्य को और अच्छा बनाना चाहता है। इसलिए अतीत को याद करने की जरूरत होती है और इसका उपाय है पुरानी चीजों को सहेज कर रखना । इसी से संग्रहालयों का जन्म हुआ। आदिमानव गुफाओं की दीवारों पर शिकार करने के, पशुओं के, उत्सव के चित्र उकेरता था। शासक वर्ग अपने पूर्वजों के वस्त्र, अस्त्र-शस्त्र आदि सँजो कर रखते थे। विद्वान लोग पाण्डुलिपियों को सहेजते थे। यह सब व्यक्तिगत प्रयास थे । समय के साथ जनसामान्य को भी अपनी विरासत के विकास में दिलचस्पी होना शुरू हुई और इसलिए सार्वजनिक संग्रहालयों का जन्म हुआ। इनका उद्देश्य अपनी सभ्यता, संस्कृति के प्रदर्शन और प्रचार के अलावा मानव और पर्यावरण की विरासतों पर वैज्ञानिक ढ़ंग से शोध करना है।
भारत में पहला संग्रहालय 1814 में कोलकाता में खोला गया। अब पूरे देश में अनेक संग्रहालय हैं जिनमें कुछ विषय विशेष से संवंधित हैं। जैसे मानव संग्रहालय, विज्ञान संग्रहालय, कला संग्रहालय आदि। कुछ संग्रहालय ऐसे होते हैं जो बहुत सारे विषय समेटे होते हैं। संग्रहालय का प्रवंधन और व्यवस्थापन की मानक प्रक्रियाऍं हैं जो विश्वविद्यालयों में संग्रहालय विज्ञान (museology) के नाम से अध्ययन की जाती हैं। संग्रहालयों की व्यवस्था इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर की जाती है इसीलिए वह सामान्य लोगों के अलावा शोध कर्ताओं के लिए उपयोगी होते हैं। ब्रिटिश म्यूजियम लंदन, द मैट्रोपॉलिटन म्यूजियम ऑफ आर्ट न्यूयार्क, उफिजी गैलरी फ्लोरेंस आदि ऐसे ही संग्रहालय हैं जिनमें विश्व भर से शोधार्थी जाते हैं।
दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय ऐसा ही है जिसमें पुरातत्व, बौद्ध कला, लघुचित्र, भारतीय लिपियों व सिक्कों का विकास, सुसज्जा कलाऍं, आभूषण, मंदिर रथ, पांडुलिपियॉं, तंजौर व मैसूर चित्र, काष्ट उत्कीर्ण, वाद्ययंत्र, जनजातीय जीवन शैली, अस्त्र-शस्त्र के लिए पृथक्-पृथक् वीथिकाऍं हैं। जैसा कि इनके नाम से ही स्पष्ट है इनके देखने से आप जान सकते हैं कि हजारों सालों में इनका विकास कैसे हुआ। कलाऍं किन-किन दौर से गुजरीं। चित्रों पर विभिन्न संस्कृतियों का क्या प्रभाव पड़ा। वस्तु विनिमय से लेकर सिक्कों का चलन और आधुनिक दौर में डिजिटल करेंसी तक का सफर कैसे हुआ। सिक्के कैसे बनाए गए। विभिन्न देशों में भारतीय व्यापारी जहाजों से कैसे व्यापार करते थे। प्रस्तरों, शिलालेखों, ताम्रपत्रों और स्तंभों पर उत्कीर्ण लेख आपके समक्ष इतिहास का निर्माण करते प्रतीत होते हैं। आप इतिहास के साथ रोमांचक यात्रा करते है। यह अतीत का सेतु है तो भविष्य का प्रवेश द्वार भी है। यह पूरा वैज्ञानिक अध्ययन है।
पिछले सप्ताह दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय का भ्रमण करने का अवसर मिला। इस बार एक नवीन गैलरी देखने को मिली। यह थी औपनिवेशिक काल की वीथिका के ठीक पहले स्थापित, काशी के संबंध में नवनिर्मित गैलरी। इसके प्रारंभ में ही बड़ा बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है – हर: काशी हर: काशी काशी काशी हरो हर:। शिव: काशी शिव: काशी काशी काशी शिव: शिव:।। अर्थात् काशी और शिव में कोई भेद नहीं है। काशी परम कल्याण कारक है। एक अन्य– बोर्ड का शीर्षक है – काशी आलौकिक नगरी । इसमें कहा गया है कि -‘ …. काशी शिव का स्थाई निवास माना जाता है। इसे ब्रह्माण्ड का केंद्र भी माना जाता है। हिंदू पौराणिक ग्रंथों में उल्लिखित है कि वाराणसी शिव के त्रिशूल के ऊपर विराजमान है। त्रिशूल के तीनों लोकों पर तीन लोक – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल प्रकल्पित हैं…।’ तीसरा बोर्ड ‘पवित्र भूमि’ के नाम से है जो कहता है – ‘वाराणसी के अंदर संपूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित है और यह ब्रह्माण्ड के केंद्र में स्थित है। … यह शिव का शहर है, यह अविमुक्त है जिसे शिव कभी नहीं छोड़ते।… यह पवित्र शहर मोक्ष सुनिश्चित करता है।’
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से वाराणसी हमारे देश का सदैव से महत्वपूर्ण शहर रहा है। इसकी पुरातात्विक विरासत, शिल्प, वस्त्रकला, विद्वत ग्रंथों की पांडुलिपियों के प्रदर्शन का सदैव स्वागत किया जाना चाहिए। परंतु इस गैलरी में जो विशेष बात देखने में आई वह है धार्मिक आस्थाओं का प्रकटीकरण। ब्रह्माण्ड का केंद्र होना, शिव का स्थाई निवास होना, मोक्ष प्रदायक होना व इसी तरह की बातें, धार्मिक आस्था्ऍं हैं। यह धर्म और आध्यात्म के विषय हैं जिनके चिंतन का स्थान हमारे पूजाघर और मंदिर हैं। जब मैं भगवान् काशी विश्वनाथ के दर्शन करता हूँ रोमांचित हो जाता हूँ श्रद्धा से नत हो जाता हूँ। इस तरह के वाक्य धार्मिक ग्रंथों में या मंदिरों में लिखे देखता हूँ तो भगवान शिव पर आस्था बढ़ती है, भक्ति प्रबल होती है। परंतु जब यही दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में देखता हूँ तो अचम्भित हो जाता हूँ। ऐसी आस्थाऍं संग्रहालयों की वैज्ञानिक विवेचना और सोच को नष्ट् कर देंगी। इससे धर्म का भी कोई भला नहीं होने वाला। फिर दूसरे धर्म वाले भी अपनी आस्थाओं को संग्रहालयों में प्रदर्शित करना चाहेंगे। फिर संग्रहालय बचेंगे ही नहीं । वे मानव विकास के वैज्ञानिक शोध के स्थान पर आस्था के पूजाघर बन जाऍंगे। संग्रहालय संचालित करने वाले अधिकारियों और विशेषज्ञों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।