लेखक ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता
कितनी विचित्र बात है कि संसार में सबसे ज्यादा युद्ध धर्म के कारण हुए हैं और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का सबसे ज्यादा विकास युद्धों के कारण हुआ। परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि विज्ञान का विकास धर्म के कारण हुआ है। सामान्य रूप से धर्म और विज्ञान को परस्पर विरोधी माना जाता है। धर्म को विश्वास (और कभी-कभी अंधविश्वास भी) और विज्ञान को तर्कयुक्त माना जाता है। विज्ञान का परिणाम सभी को एक जैसा दिखता है। मोबाइल फोन पर सभी बात कर सकते हैं चाहे वह उसकी आंतरिक तकनीकी समझते हों या नहीं। सीटी स्कैन मशीन आस्तिक-नास्तिक, मूर्ख-विद्वान, स्त्री-पुरुष, अफ्रीकी-अमेरिकी सभी के शरीर के अंदर का चित्र निकालकर दिखा देगी। विज्ञान विश्वास का विषय नहीं है, वह भौतिक रूप से पॉंच ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करने का विषय है। इसलिए विज्ञान को लेकर कभी विवाद नहीं होता। पूरे संसार का विज्ञान एक सा है।
विज्ञान के नियम सृष्टि में स्वमेव पैदा हुए हैं। वैज्ञानिक उनकी खोज करते हैं, आविष्कार नहीं करते। आविष्कार तो प्रौद्योगिकी का करते हैं जो विज्ञान के नियमों का व्यवहारिक जीवन में उपयोग करती है। गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज के पहले भी पेड़ पर लगा फल टूटकर भूमि पर ही गिरता था, ग्रह, नक्षत्र और पिंड आपस में आकर्षित होते थे। सापेक्षता के नियम की खोज के पहले भी पदार्थ और ऊर्जा आपस में बदल सकते थे। इस खोज के बाद हमने उसका उपयोग कर आणविक ऊर्जा का आविष्कार कर लिया। सृष्टि में विद्युत चुम्बकीय तरंगों का अस्तित्व तो सदैव से है परंतु जब इनकी खोज की और उनके उपयोग की प्रौद्योगिकी विकसित की तो रेडियो, टीवी और मोबाइल जैसे आविष्कार हो सके। यदि तृतीय विश्वयुद्ध में सारी मानवता नष्ट हो जाए तो उसके साथ प्रौद्योगिकी भी नष्ट हो जाएगी परंतु संसार में विज्ञान के नियम यथावत कार्य करते रहेंगे।
धर्म के साथ मामला पेचीदा हो जाता है। अंग्रेजी में जिसे रिलीजन कहा जाता है उसकी समझ दुनिया के भौगोलिक क्षेत्र, वहॉं के समाज, अर्थव्यवस्था आदि के साथ विकसित हुई है। यह विश्वास का मामला है। इसलिए दुनिया के तीन बड़े रिलीजन ईसाई, इस्लाम और यहूदी में विश्वास करना ही महत्वपूर्ण है। उनकी एक पवित्र पुस्तक है, ईश्वर का संदेश लाने वाले एक दूत हैं। पुस्तक में जो लिखा है और ईश्वर के संदेश में जो कहा गया है वह अंतिम सत्य है, उस पर विश्वास करना ही होगा। भारत का हिन्दू या सनातन धर्म इस मामले में भिन्न है क्योंकि यहॉं विश्वास का स्थान बहुत सीमित है। यहॉं अनुभव और सत्य का दर्शन ही प्रमाण है। अनुभव और दर्शन तो उसी का होगा जो अस्तित्व में है। किसी के कहने से उसे बदला नहीं जा सकता। इसलिए हमारे चारों ओर जो अस्तित्व हमें घेरे है उसके स्वभाव को ही धर्म कहते हैं। जैसे विज्ञान स्वयं उद्भूत है और पूरे संसार में एक सा है वैसे ही अस्तित्व का स्वभाव भी स्वयं उद्भूत है, सदैव से था, सदैव ऐसा ही रहेगा और पूरे ब्रह्माण्ड में एक सा है। पर यह अस्तित्व है क्या ?
इस अस्तित्व को ऐसे समझें कि, संसार में जो कुछ भी है उस सभी में चेतना है। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं संसार के सभी जीवों में मेरा ही अंश विद्यमान है (15.7)। यही अंश चेतना है, इसी से सारी सक्रियता है। विभिन्न रूपों में उस चेतना के स्तर में अंतर है। कहीं ज्यादा है कहीं कम। पत्थर में चेतना सुषुप्त है, पौधे में कुछ जाग्रत है, जीव-जन्तुओं में और ज्यादा सक्रिय है और मानव में उससे भी ज्यादा। जहॉं चेतना होती है वह अपने को अभिव्यक्त करती ही है। चेतना सुषुप्त होने के कारण पत्थर तोड़े जाने का विरोध नहीं करता, परंतु पौधा काटे जाने पर पीड़ा के चिह्न प्रकट करता है, और चींटी तो प्रतिरोध करेगी और अपनी जान बचाने का भरसक प्रयत्न करेगी। चेतना का ज्ञान बुद्धि से होता है। परंतु ज्ञान होना और अनुभव होना दो अलग बातें हैं। हम उपनिषद पढ़कर बौद्धिक रूप से ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मान लेंगे परंतु यह अनुभूति नहीं है, मात्र जानकारी है। धर्म का उद्देश्य है कण-कण में इस चेतना का अनुभव कराना, दर्शन कराना। इस अनुभव के बाद संसार का रूप ही बदल जाता है। तुलसीदासजी को सारा संसार ‘सियाराममय’ दिखने लगाता है तो कबीरजी को ‘इस घट अंतर अनहद गरजै’ सुनाई देने लगता है।
अब इस अस्तित्व का स्वभाव देखें। यह बगैर प्रतिफल की आशा किये निरंतर दे रहा है। सूरज प्रकाश दे रहा है, बादल पानी दे रहे हैं, वायु प्राण दे रही है। सब दूसरों के हित में त्याग कर रहे हैं। कोई अपने पास कुछ संग्रह नहीं कर रहा। वृक्ष अपनी सारी ऊर्जा बीज बनाने में लगा रहा है ताकि नए वृक्ष और फल संसार को मिल सकें। पूरा अस्तित्व अपरिग्रही है। कुछ भी स्थाई नहीं है। जो बन रहा है वह अगले ही क्षण किसी अन्य रूप में बदल रहा है। सब कुछ अनित्य है। जीवन-मृत्यु निरंतर चल रहे हैं। सब कुछ शांत है। न पुष्प कुछ बोलता है न चॉंदनी। बोलना केवल बाह्य क्रिया है आंतरिक नहीं। पूरे अस्तित्व में सब कुछ नियमबद्ध है, सहज है, सरल है। सूर्य समय पर निकलेगा, कमल भोर होते ही खिलेंगे आदि। ऐसा नहीं हो सकता कि कमल अचानक रात में खिलना तय कर लें। इसमें धोखे की कोई गुंजाइश नहीं है। मृत्यु है पर अकारण हिंसा नहीं है। शेर भूखा होने पर ही शिकार करता है। शेर का पेट भरा हो तो वह हिरण की तरफ ऑंख उठाकर भी नहीं देखता। अस्तित्व मूलत: अहिंसक है।
आप जितना विचार करते जाएँगे तो पाऍंगे कि अस्तित्व का स्वभाव ही त्याग, अपरिग्रह, सत्य, मौन, सरलता, अहिंसा आदि हैं। यही धर्म के अंग हैं। इनका कोई विकल्प नहीं हो सकता क्योंकि यह विज्ञान की तरह स्वमेव सृष्टि में उद्भूत हुए हैं। इसलिए अस्तित्व या चेतना का साक्षात्कार करना है तो इन्हीं नियमों पर चलना होगा।
धर्म के दो भाग हैं सैद्धांतिक और प्रायोगिक। सैद्धांतिक भाग तो उपनिषदों में 5 महावाक्यों के रूप में व्यक्त किया गया है – अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ), तत्त्वमसि (वह ब्रह्म तू है), अयम् आत्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है), प्रज्ञानं ब्रह्म (प्रकट ज्ञान ही ब्रह्म है) और सर्वं खल्विदं ब्रह्म (सर्वत्र ब्रह्म ही है)। धर्म के प्रायोगिक भाग में प्राचीन महापुरुषों ने विभिन्न प्रकार की धार्मिक प्रक्रियाओं का विधान किया है जो अस्तित्व के स्वाभाविक गुणों पर आधारित हैं। मूर्तिपूजा से लेकर व्रत, तप, योग, यज्ञ, ध्यान आदि प्रक्रियाओं का उद्देश्य आंतरिक शुद्धता बढ़ाकर कण-कण में चेतना का अनुभव करना है। इन प्रक्रियाओं को हम धर्म की प्रौद्योगिकी कह सकते हैं।
जिस प्रकार प्रौद्योगिकी तभी सफल होगी जब वह विज्ञान के नियमों के अनुसार होगी। उसी तरह धार्मिक क्रिया तभी सार्थक होगी जब वह धर्म के अनुरूप होगी। सही धार्मिक क्रिया हमारे अंतर को परम चेतना या अस्तित्व के स्वभाव के अनुरूप ढ़ालती है। जब हमारे अंदर भी अस्तित्व जैसे गुण पैदा हो जाते हैं तब हम में और अस्तित्व में अंतर समाप्त हो जाता है। बीच का पर्दा गिर जाता है और यही साक्षात्कार की अवस्था है जो धर्म का उद्देश्य है। कल्पना करें ऐसे मोबाइल की जिसमें सिम न हो तो वह मोबाइल बच्चों का खिलौना होगा जिससे वे फोन करने का ढ़ोंग कर सकते हैं पर बातचीत नहीं कर सकते । इसी प्रकार जो कथित धार्मिक क्रिया हमारे अंदर अस्तित्व के मूल स्वभाव जैसे – सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, आस्तेय, क्षमा, धैर्य, अक्रोध आदि – को समृद्ध न कर सके वह पाखंड होगी। अंतर केवल इतना है कि विज्ञान पॉंच ज्ञानेन्द्रियों से अनुभूत होता है जो हम सभी के पास हैं इसलिए कोई प्रौद्योगिकी कार्य कर रही है या नहीं यह सबको पता चल जाता है। धर्म की प्रक्रिया आंतरिक शुद्धीकरण करती है जि सका पता स्वयं हमें ही ईमानदार अंतरावलोकन से चल सकता है। दूसरा इसे नहीं समझ सकता। इसलिए धर्म की प्रौद्योगिकी में धोखे की भरपूर संभावनाऍं हैं और आजकल तो धर्म के नाम पर यही बहुतायत में चल रहा है। ऐसी स्थिति में आपका विवेक और ईमानदार अंतरावलोकन ही आपको सही मार्ग दिखा सकता है।
(opshrivastava@ymail.com)
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