September 23, 2024

गडकरी के ‘डिमोशन’ का मतलब ?

 

 

लेखक डॉ संतोष मानव दैनिक भास्कर सहित अनेक अखबारों के संपादक रहे हैं. फिलहाल लगातार मीडिया में स्थानीय संपादक हैं।

एक्सपोज़ टुडे।

यह चुनावी जमावट है? निजी खुन्नस है? चेतावनी है या पार्टी नेतृत्व से असहमति का जवाब? बीजेपी की दो सर्वोच्च समितियों में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और वजनदार मंत्री नितिन गडकरी का नहीं होना क्या कहता है? सवाल इसलिए कि अभी-अभी बीजेपी की सर्वोच्च समिति यानी बीजेपी संसदीय बोर्ड से नितिन गडकरी को हटा दिया गया है. संसदीय बोर्ड को सबसे पावरफुल यानी पार्टी की सर्वोच्च समिति माना जाता है. इसमें पार्टी के वरिष्ठ और भरोसेमंद नेताओं को रखा जाता है. ऐसे लोग जिनकी निष्ठा पार्टी के प्रति असंदिग्ध हो. इसलिए कि यही 11 सदस्यीय समिति मुख्यमंत्री, विपक्ष का नेता, राष्ट्रपति-उप राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार, पार्टी की नीति, गठबंधन आदि तय करती है. इस समिति से नितिन गडकरी के बाहर होने से बहुतेरे सवाल हैं और उतने ही जवाब. फिर सच क्या है? सच के करीब पहुंचने से पहले थोड़ा पीछे चलना होगा.

 

संघ के प्रिय हैं नितिन गडकरी 

नितिन गडकरी महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से आते हैं. सामान्य परिवार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की पृष्ठभूमि है. माता-पिता भी संघ से जुड़े थे. 1996 में महाराष्ट्र के लोक निर्माण विभाग (PWD) के मंत्री बने तो चर्चा में आए. 2009 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. तब कई नाम थे. शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, मनोहर पर्रिकर, नितिन गडकरी और ला. गणेशन अय्यर. बताया जाता है कि पितृ संगठन के इशारे पर नितिन गडकरी को अध्यक्ष चुना गया. यानी गडकरी संघ नेतृत्व के प्रिय हैं, यह कोई दबी-छिपी बात नहीं है. बतौर पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने नागपुर के ही एक नेता संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया. अखबारों की सुर्खियां बनी- गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी संजय जोशी को यूपी प्रभारी बनाने के खिलाफ. बनाया तो पार्टी के अधिवेशन में नहीं आएंगे. जोशी प्रभारी नहीं बने. 2014 में गडकरी दोबारा पार्टी अध्यक्ष बनने वाले थे. ऐन मौके पर गडकरी के प्रतिष्ठान में कथित गड़बड़ी की खबरें आने लगीं. तब भी मीडिया के एक खेमे में छपा कि गडकरी को बदनाम करने के पीछे गुजरात के कुछ लोगों का हाथ है. वे हाथ किसके थे? इसलिए मानकर चलिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नितिन गडकरी में मधुर संबंध नहीं है. यह बात पार्टी कैडर भी मानते हैं. 2014 से 2022 के बीच बहुत कुछ बदला. अब नरेंद्र मोदी बीजेपी के एकछत्र नेता हैं. संगठन हो या सत्ता उनकी सहमति आवश्यक है. ऐसे में संसदीय समिति में नितिन गडकरी के नहीं होने के मायने समझना बहुत कठिन नहीं है. और वह भी तब, जब संसदीय समिति में पूर्व अध्यक्ष को रखना पार्टी की परंपरा रही है.

क्या गडकरी मंत्री नहीं रहेंगे ?

ऐसे में अगर किसी दिन यह खबर आए कि नितिन गडकरी मंत्री नहीं रहे, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. यह भी याद रखिए कि मोदी के विकल्पों में एक नाम नितिन जयराम गडकरी का भी है. यह भी भूलने वाली बात नहीं है कि गडकरी अपने मंत्रालय में हस्तक्षेप नहीं चाहते. किसी को करने नहीं देते. वे मुखर हैं. असहमति जताने से नहीं चूकते. अपनी बात कह देते हैं. पिछले दिनों उनका एक बयान आया था कि आज की राजनीति सत्ता पाने का साधन भर है. ऐसे में कभी-कभी मन करता है कि राजनीति छोड़ दूं. यह बयान भी ‘नेता’ के खिलाफ माना गया. ऐसे और भी बयान हैं. महाराष्ट्र के एक अंग्रेजी दैनिक में इसी साल छपी एक खबर को याद करना चाहिए. इस अखबार ने सूत्र के हवाले से छापा था : ‘कैबिनेट मिटिंग में गडकरी ने कहा-आपकी मनमानी नहीं चलेगी. यह नहीं भूलिए कि पार्टी के 303 सांसदों में से 250 संघ से जुड़े हैं. आपकी कुर्सी पलट सकती है. ‘ विस्तृत खबर की यह कुछ पंक्तियां हैं.

और शह-मात का खेल जारी है 

थोड़ा और पीछे चलते हैं. नागपुर में बीजेपी के पुराने रूप जनसंघ के एक नेता थे. नाम था – गंगाधरराव फड़णवीस. फड़णवीस ने युवा नेता नितिन गडकरी को राजनीति के गुर सीखाए. आगे बढाया. नितिन गडकरी उपकार न भूलने वाले नेताओं में से हैं. गंगाधरराव का कर्ज उन्होंने उनके सुपुत्र देवेंद्र फड़णवीस को आगे बढ़ाकर चुकाया. देवेंद्र नगर निगम पार्षद से लेकर बहुत कम उम्र में नागपुर का महपौर और पश्चिम नागपुर से विधायक, नितिन गडकरी के सहयोग से बने और अब बीजेपी के ही लोग कहते हैं कि देवेंद्र के सिर सत्ता का हाथ है. वह सत्ता के इशारे पर नितिन गडकरी की काट हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि 2014 और 2019 में भारी मतों से नागपुर लोकसभा की सीट बीजेपी की झोली में डालने वाले नितिन गडकरी 2024 में नागपुर से उम्मीदवार नहीं होंगे. उम्मीदवार होंगे देवेंद्र गंगाधरराव फड़णवीस. यह भी जान लेना चाहिए कि नागपुर सीट बीजेपी के अनुकूल कभी नहीं रही. 2014 यानी नितिन गडकरी से पहले सिर्फ एक बार 1996 में बीजेपी के टिकट पर कांग्रेस के नेता रहे बनवारीलाल पुरोहित जरूर जीत गए थे. बीजेपी की दूसरी पावरफुल समिति-15 सदस्यीय केंद्रीय चुनाव समिति में देवेंद्र की इंट्री के पीछे शह-मात का खेल ही है. यह समिति लोकसभा से लेकर विधानसभा तक के टिकट तय करती है. इस समिति में देवेंद्र फड़णवीस हैं, लेकिन नितिन गडकरी नहीं हैं.

क्या बीजेपी में झगड़े के दिन आ गए ? 

चुनावी जमावट की भी बात है. संसदीय समिति में पार्टी अध्यक्ष और दस प्रमुख नेता होते हैं. नई समिति में मुसलमान छोड़कर सभी प्रमुख जातियों-जातीय समूह से आने वाले लोग हैं. ऐसे में यह कहने वाले लोग कम नहीं हैं कि पूर्वोत्तर के आदिवासी नेता सर्वानंद सोनोवाल को एडजस्ट करने के लिए नितिन गडकरी को किनारे किया गया. ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि परंपराओं को बीजेपी 2014 में ही भूल गई. परंपरा उसी दिन टूट गई, जब अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी यानी तीन पूर्व पार्टी अध्यक्षों को संसदीय समिति से हटाकर मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया गया था. चुनावी जमावट, निजी पसंद-नापसंदगी या असहमति के स्वर बंद कर देना, प्रतियोगी को किनारे करना, कारण कुछ भी हो सकता है. पर मानकर चलिए कि बीजेपी में झगड़े के दिन आ गए हैं और यह सनातन सत्य है कि झगड़े से नुकसान दोनों पक्षों को होता है. {लेखक दैनिक भास्कर सहित अनेक अखबारों के संपादक रहे हैं. फिलहाल लगातार मीडिया में स्थानीय संपादक हैं }

Written by XT Correspondent