November 25, 2024

शब्‍दों के अर्थों पर महाभारत।

लेखक ओपी श्रीवास्तव मध्यप्रदेश शासन में आईएएस अफसर हैं आबकारी आयुक्त हैं और धर्म और आध्यात्म के अघेता हैं।

एक्सपोज़ टुडे।

भाषा बड़ी मजेदार चीज है। जीवित प्राणियों की तरह भाषा भी जन्‍म लेती है,  विकास करती है, क्षय होती है और अंत में मृत हो जाती है। भाषाविद् बताते हैं कि विश्‍व में 573 भाषाएँ जड़-मूल से समाप्‍त हो चुकी हैं। वर्तमान में प्रचलित लगभग 7 हजार भाषाओं में से 90 प्रतिशत से अधिक ह्रास की ओर जा रही हैं। उनके बोलने-समझने वाले समाप्‍त होते जा रहे हैं। भाषा की उम्र, इस बात पर निर्भर करती है कि बदलते समय के साथ वह आमजन के लिए कितनी उपयोगी रह पाती है। भाषा की उम्र का दूसरा पहलू भी है। उसे बोलने, समझने वाले भले ही समाप्‍त हो जाएँ परंतु वह,उसमें रचे गये दार्शनिक और साहित्‍यक संसार के माध्‍यम से अमर हो सकती है। संस्‍कृत ऐसी ही भाषा है जिसका व्‍यवहारिक उपयोग निरंतर कम होता गया है परंतु उसमें लिखे अत्‍यंत उच्‍च दार्शनिक, साहित्‍यक ग्रंथों व गणित के नियमों जैसी सुस्‍पष्‍ट व्‍याकरण के चलते वह अमर हो गई है।

भाषाएँ भी शिशु, युवा, प्रौढ़ और वृद्धावस्‍था से गुजरती हैं। अपनी शिशु अवस्‍था में यह अपने संसार को स्‍वयं खोजती हैं, उसके शब्‍दों का जन्‍म और विकास होता है। युवा अवस्‍था में अन्‍य भाषाओं व संस्‍कृतियों के संपर्क में आने पर उनमें नए शब्‍द, शब्‍दों के नए अर्थ शामिल होने लगते हैं। शब्‍द और उनके अर्थ समय के साथ बदलते भी हैं। आज ‘भूत’ शब्‍द का अर्थ प्रेत, पिशाच माना जाता है जबकि यही ‘भूत’ शब्‍द आध्‍यात्मिक दर्शन में जीवित प्राणियों के लिए उपयोग में आया है। ‘तात’ शब्‍द से पिता, पुत्र, गुरु अर्थात् छोटे-बड़े सभी को संबोधित किया जाता था अब बोलचाल में यह शब्‍द लुप्‍त हो चुका है।

भाषा में हर विषय के लिए अलग-अलग शब्‍द होते हैं। यदि दो चिकित्‍सक, इंजीनियर या धार्मिक-दार्शनिक अपने विषय पर आपस में बात करें तो उनकी शब्‍दावली बिलकुल भिन्‍न होगी। उस शब्‍दावली का अर्थ उसी विषय के परिप्रेक्ष्‍य में लगाना होगा । एक बच्‍चे ने अपने दादाजी से पूछा कि शंकर-पार्वती जी कम्‍प्‍यूटर क्‍यों नहीं चलाते ? दादाजी हार मान गये तब बच्‍चा बोला क्‍योंकि गणेश जी माउस लेकर भाग गये थे। अब बच्‍चे के लिए माउस का अर्थ कम्‍प्‍यूटर का माउस है जबकि उसी का अर्थ गणेश जी के संदर्भ में उनकी सवारी चूहा है। शब्‍द एक है, फर्क संदर्भ का है। अलग-अलग स्‍थानों पर एक ही शब्‍द अलग-अलग अर्थों में भी प्रयुक्‍त हो सकता है। उत्‍तर भारत का ‘भाई’ मुंबई जाकर गुंडे का पर्याय बन जाता है।

एक ओर बात है। किसी भी विषय को वक्‍ता किस अवस्‍था में और चेतना के किस स्‍तर पर जाकर बता रहा है उसके शब्‍दों को उसी स्‍तर पर जाकर समझना होता है। जब हम क्रोध में और प्रेम में बोलते हैं तो शब्‍द तो बदलते ही हैं उनके अर्थ भी बदल जाते हैं। ‘प्रेम में मरने’ और ‘ईर्ष्‍या से मरने’ में कहीं भी मृत्‍यु नहीं है परंतु अर्थ में जमीन आसमान का अंतर है। महाभारत समाप्‍त होने के बाद अर्जुन ने कृष्‍ण से पुन: गीता सुनाने की प्रार्थना की तो कृष्‍ण ने कहा कि अब संभव नहीं है। युद्ध के समय कृष्‍ण चेतना के जिस स्‍तर पर थे वह बाद में नहीं थी इसलिए उन शब्‍दों को दोहराना असंभव था। इसलिए विद्वान गीता का अर्थ अपने-अपने अनुभव,ज्ञान और चेतना के स्‍तर पर भिन्‍न-भिन्न प्रकार से करते हैं । इसीलिए गीता एक है परंतु उस पर सैकड़ों टीकाएँ लिखी गई हैं। वेदों के ब्राह्मण खंड में यज्ञ का अर्थ अग्नि में आहुति देने वाली भव्‍य क्रिया है जिसमें बहुत धन-सामग्री लगती थी, बड़ा जनसमूह एकत्र होता था वहीं गीता के ‘यज्ञ’ में वैदिक यज्ञों के अलावा वह सभी क्रियाएँ शामिल हैं जो अहंकार और फल में आसक्ति का त्‍याग कर सर्वजनहिताय की जाती हैं।

शब्‍दों का अर्थ समय, विषय, स्‍थान, संदर्भ, वक्‍ता के ज्ञान और चेतना के स्‍तर के साथ बदल जाता है। जब किसी भाषा के शब्‍दों को उनकी उत्‍पत्ति के स्रोत, उस समय के समाज, प्रचलित संस्‍कृति व दर्शन को जाने बगैर उनका अर्थ करने का प्रयास किया जाता है तो अनर्थ हो जाता है। आजकल मानस की चौपाई ‘ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी’ पर भूचाल आया हुआ है। कोई शूद्र को क्षुब्‍ध और नारी को रारी के रूप में शुद्ध करने की बात कह रहा है तो कोई इसे मानस से निकाल देने की वकालत कर रहा है। मानस तो वेद,पुराण और आगम शास्‍त्रों का निचोड़ है परंतु लिखी अवधी भाषा में गई है जिसमें अन्‍य भाषाओं के देशज शब्‍दों की भरमार है। इसलिए जहाँ शब्‍दों का भाव वेदों के अनुसार लेना होगा वहीं शाब्दिक अर्थ भाषा के अनुसार। वेदों का भाव जीव और ब्रह्म की एकता है। वेद का जगत् को देखने का दृष्टिकोण यह है कि न कोई छोटा है न बड़ा, न अपना न पराया। वहीं अवधी में ताड़ना का अर्थ देखभाल करना है। जब हम शूद्र का अर्थ ‘वर्तमान जन्‍म आ‍धारित जातिव्‍यवस्‍था’ और ताड़ना का अर्थ संस्‍कृत के अनुरूप ‘दंड देना या पीटना’ ले लेते हैं तो समस्‍या हो जाती है।

सनातन धर्म में मनुष्‍य का चार वर्णों का विभाजन उनके गुण व स्‍वभाव के आधार पर किया गया है जन्‍म के आधार पर नहीं (गीता 4.13) । प्राचीन शास्‍त्रों में कई प्रमाण हैं जब पुत्र का वर्ण पिता से पृथक् माना गया। हरिवंश पुराण में शुनकऋषि के चार पुत्रों का वर्णन है जिनमें एक शौनक ब्राह्ण थे और शेष तीन क्षत्रिय, वैश्‍य व शूद्र वर्ण के थे। वैश्‍य नाभागारिष्‍ट के दो पुत्रों को ब्राह्मणत्‍व प्राप्‍त हुआ था। भार्गव वंश के अंगिरस ऋषि के चारों पुत्र चार वर्णों के थे।  गीता में शूद्र शब्‍द 3 बार आया है। प्रथम जब सभी वर्णों को परम गति प्राप्ति का आश्‍वासन दिया गया है (9.32) दूसरी बार, जब कहा है कि व्‍यक्ति के गुणों के आधार पर उसके कर्मों का विभाजन किया गया है (18.41), तीसरी बार, जब गुणों के आधार पर विभिन्‍न वर्णों के कर्म बताए गए हैं (18.44) । इसमें दूर-दूर तक जन्‍म आधारित जातिव्‍यवस्‍था का संकेत भी नहीं है। योग्‍यता आधारित वर्णव्‍यवस्‍था तो समाज में सदैव से रही है और आज भी है। क्‍या हम प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्‍यम से शोध करने, सेना में जाने, प्रशासन व व्‍यवसाय करने और भृत्‍य का कार्य करने वाले व्‍यक्तियों का चयन नहीं करते ? हमारे देश का दुर्भाग्‍य रहा कि योग्‍यता आधारित वर्णव्‍यवस्‍था कालान्‍तर में जन्‍म आ‍धारित जाति व्‍यवस्‍था में बदल गई और विभाजित समाज पतन के गर्त में डूब गया।

क्‍या साइकिल सुधारने वाला अंतरिक्ष यान सुधार सकता है ? उत्‍तर होगा नहीं। यद्यपि दोनों यान हैं परंतु दोनों को समझने के लिए योग्‍यता में जमीन-आसमान का अंतर है। उच्‍च आध्‍यात्मिक ग्रंथ समझने के लिए विशेष योग्‍यता की आवश्‍यकता होती है जो हर व्‍यक्ति के पास नहीं होती । इसलिए वेदों में कर्मकाण्‍ड, उपासना और ज्ञान अलग-अलग भागों में दिया गया है। जो व्‍यक्ति देह के स्‍तर पर जी रहे हैं अर्थात् खाने-पीने, सोने, संतानोत्‍पत्ति करने के अलावा जिनके पास कोई विचार ही नहीं है उनके लिए कई प्रकार के कर्मकाण्‍ड हैं। इनमें केवल शारीरिक कर्म करना होता है। इसके ऊपर के स्‍तर पर जो व्‍यक्ति भावप्रधान हैं, हृदय के स्‍तर पर जीते हैं उनके लिए उपासना का विधान है जिसमें प्रभु के प्रति प्रेम, समर्पण की भावात्‍मक प्रधानता है। जिनकी बुद्धि प्रखर है, मन पर नियंत्रण है उनके लिए ज्ञानमार्ग है। देह के स्‍तर पर जीने वाले व्‍यक्ति में हृदय के भाव को या मस्तिष्‍क के ज्ञान को समझने की योग्‍यता ही नहीं होती। देह के स्‍तर पर जीनेवाला व्‍यक्ति कर्मकाण्‍ड, नि:स्‍वार्थ कर्म आदि के द्वारा, भावप्रधान व्‍यक्ति उपासना, प्रेम और समर्पण द्वारा स्‍वयं में अगली श्रेणी की योग्‍यता पैदा कर सकता है। आप हिमालय पर चढ़ना चाहें तो पहले अपने गाँव की पहाड़ी पर चढ़ने की योग्‍यता तो प्राप्‍त कर लें, आगे और प्रशिक्षण प्राप्‍त करें तभी हिमालय विजित करने का सोच पाएँगे । इसलिए कहा गया है कि योग्‍य व्‍यक्ति को ही ग्रंथों के अध्‍ययन का अधिकार होना चाहिए अन्‍यथा अनर्गल निष्‍कर्ष निकलने का खतरा हो जाएगा। गीता के अंत में कृष्‍ण ने ऐसे व्‍यक्तियों का वर्णन किया है जिनमें गीता के ज्ञान को समझने की योग्‍यता नहीं है।

हमारे संवाद का आधार भाषा है। जब तक हम संवाद या लेख के पीछे का दर्शन, देश, काल और परिस्थिति, उस समय के समाज, संस्‍कृति, बोलने या लिखने वाले के चेतना के स्‍तर को नहीं समझेंगे तब तब गलत अर्थ करते रहेंगे, दोष वक्‍ता महापुरुष को या ग्रंथों को देते रहेंगे और स्‍वयं को भी उस ज्ञान से बंचित कर लेंगे। इसलिए ग्रंथों की अंध आलोचना के स्‍थान पर उनके शब्‍दों को सही परिप्रेक्ष्‍य में समझने की जरूरत है।

 

Written by XT Correspondent