अम्बिकापुर। छत्तीसगढ़ की सोनाबाई रजवार का नाम भित्तिकला के लिए देश ही नहीं सुदूर विदेशों में भी पहचाना जाता रहा है। कुछ सालों पहले उनका निधन हो गया लेकिन उनकी इस कला को उनका परिवार आज भी बढ़ा रहा है। उनके काम को देखने के लिए कई लोग अम्बिकापुर के समीप उनके गाँव पुहपुटरा पहुँचते हैं और यहाँ उनके घर की दीवारों पर बने भित्तिचित्रों को देखकर दंग रह जाते हैं। इनमें लोककला के साथ उन्होंने जिस कल्पनाशीलता और मौलिक अभिव्यक्ति का संसार रचा है, उसके लिए उन्हें जीवनभर खूब सम्मान मिला।
अंबिकापुर के होलीक्रास विमेंस कॉलेज की छात्राओं ने उनके गाँव की शैक्षणिक यात्रा कर उनके बारे में जानने समझने का प्रयास किया। हिन्दी विषय की सहायक प्राध्यापक मृदुला सिंह ने बताया कि उनके घर में प्रवेश करते ही उनके रंग संसार से मन जुड़ने लगा। उनके बनाये भित्तिचित्रों में विविधता है, अभिव्यक्ति ऐसी कि नजर न हटे। मन में संचित चेतन संसार के चित्रों को सोना बाई ने भौतिक दुनिया के कैनवास पर बहुत बारीकी से उतारा है। सोना बाई का घर सुंदर कलात्मक चित्रों से सजा है। उनके घर की दीवारें मानो बोलती हैं। घर की भीतों पर उनके बनाये सुंदर कलात्मक प्राकृतिक चित्र मन को मुग्ध करने वाले है।
छात्राओं ने बताया कि सोनाबाई ने अपनी दीवारों पर पेड़, बेल, पत्ती, बंदर चिडिया, हिरण और न जाने कितने अपने देखे को चित्रित किया है। ये जीवंत भित्तिचित्र बाहर की प्राकृतिक दुनिया को अपने घर संसार में बचाये रखने का सुंदर उपक्रम हैं।
एक छात्रा ने बताया कि उनकी कला से हम प्रत्यक्ष हो ही रहे थे कि हमारी नजर चौकोर आकर की ऊंची कलाकृति पर पड़ी जो अत्यंत कलात्मक थी। जिज्ञासा वश हमने उनके पुत्र दरोगा रजवार से उसके बारे में पूछा, उन्होंने उसका नाम ‘ढूंढ़की’ बताया। ” ढूंढ़की’के सम्बंध में विस्तार से जानकारी दी… सबसे ऊपरी भाग ढक्कन नुमा आकृति का था, उन्होंने बताया यहाँ से अनाज डाला जाता है। सबसे नीचे निकास बीच में संचय उन्होंने बताया इसमे हर दिन एक मुट्ठी अनाज डालने का रिवाज है। यह एक मुट्ठी अनाज इस’ ढूंढ़की’ में इकट्ठा होता रहता है और जब कभी अनाज की कमी होती है तो उपयोग में लाया जाता है। आधुनिक गुल्लक का यह प्राचीनतम रूप जान पड़ता है। कितनी अच्छी बात है न एक मुट्ठी अनाज का संचय, जिस दिन अनाज की कमी हो तो उपयोग में आएगा। विपरीत दिनों में यह बहुत उपयोगी होता है।
मृदुला सिंह ने बताया कि कलाओं का घर माने जाने वाले भोपाल के भारत भवन में भी सोनाबाई रजवार की कई कलाकृतियों की धरोहर सहेजी गई है। उनके घर की दीवारों से निकलकर अब ये कृतियाँ देश-विदेश के बड़े कला संग्रहालयों में पहुँच चुकी हैं। उन्हें इसके लिए कई बड़े सम्मान भी मिले। 1983 में सोनाबाई को पहला राष्ट्रीय सम्मान मिला। इसके बाद 1986 में मध्यप्रदेश शासन का तुलसी सम्मान मिला। पत्रिका चौमासा में उन पर आलेख लिखे गये। उन्हें शिल्प गुरु सम्मान और छत्तीसगढ़ का दाऊ मंदराजी सम्मान मिला लेकिन वे बड़ा कलाकार होने के रंग-ढंग के प्रदर्शन से कोसों दूर सहज और सरल ही बनी रही। दरोगा सिंह ने बताया कि पहले गाँव के लोग दीवारों पर इस तरह पुतले बनाने का विरोध करते थे और कहते कि इनमें तो भूत-प्रेत का वास हो जाएगा लेकिन जब उनकी कला को दूर-दूर से सराहना मिलने लगी तो गाँव वाले भी उनका आदर करने लगे।
प्रसिद्ध अमेरिकी समाजशास्त्री और मानवविज्ञानी, फोटोग्राफर स्टीफन पी. ह्यूलर ने एक किताब के रिसर्च के दौरान उनकी कला को पहचाना। 2007 में इस छोटे से गाँव में कलाकारों के बीच रहकर सोनाबाई का कला का संकलन आरंभ किया। छायांकन के साथ उन्होने रजवार कला की विविध कलाकृतियों को निर्मित करवाकर खरीदा और अब अमेरिका और यूरोप के देशों में रजवार कला प्रदर्शनी के रूप में इसे दुनिया को परिचित करा रहे हैं। उनकी बनाई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म डीवीडी में उपलब्ध है। ‘सोनाबाई’ शीर्षक के नाम से प्रकाशित किताब भी अब उपलब्ध है।