बस इतनी तेज़?
डॉ. अनन्या मिश्र, सीनियर मेनेजर आईआईएम इंदौर में कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन एवं मीडिया रिलेशन के पद पर हैं।
एक्सपोज़ टुडे।
मैं लगभग दस वर्ष की थी। सड़कें खाली थीं और मोहल्ले के सभी बच्चे एक साथ अपनी-अपनी साइकिल चला रहे थे। गर्मी की छुट्टियाँ थी और मेरे बड़े भाई (बुआ और ताऊजी के बेटे) भी मेरे घर आए हुए थे। हम छोटे भाई-बहन उनको बारी-बारी से तेज़ी से साइकिल चला कर दिखा रहे थे।बेवजह की प्रतिस्पर्धा थी कि कौन सबसे तेज़ चला सकता है। ज़ाहिर है बड़े भैया मुझसे तेज़ चला लेते थे। लेकिन जब मेरी चलाने की बारी आई तो भैया ने प्रोत्साहित करने के लिए कह दिया – ‘बस इतना ही? इतनी ही तेज़?’ एक बार नहीं, दो बार नहीं, बार-बार। मैं भी अति उत्साहित हो गई।सोचा आज तो इतनी तेज़ चलाना ही है कि भैया बोलें कि अनन्या से तेज़ कोई नहीं चलाता साइकिल! इतनी तेज़ चलाई कि अगले कुछ क्षण में संतुलन बिगड़ा और मैं ज़मीन पर आ गयी। चारों ओर कुछ क्षणों के लिए अँधेरा। दिखाई दिया तो समझ आया घुटने से धारमंद खून बह रहा है।आसपास सब भाई-बहन खड़े हैं। एक ने उठाया और पास के अस्पताल ले गए। थोड़ा और होश संभला तो भयानक शब्द सुनाई दिए – ‘टाँके लगाने पड़ेंगे अब तो अगर खून नहीं रुका’। अब तक तो रोना नहीं आया था लेकिन दस साल के बच्चे को ‘टाँके’ सुनाई दे जाए तो निश्चित ही पूरे मोहल्ले के सामने जोर-जोर से रो कर हंगामा करना ज़रूरी हो जाता है।खैर, टाँके तो नहीं लगाने पड़े किन्तु कुछ दिन बिस्तर पर ही गुज़ारे। आज भी भाई मेरे आत्म-नियंत्रण खोने के लिए टांग खींचते हैं।
वैसे हम सभी जीवन में ऐसे क्षणों का सामना करते हैं जहां उच्च या निम्न आत्म-नियंत्रण महत्व रखता है। प्रभावी आत्म-नियंत्रण को सफलता के साथ-साथ सामाजिक कल्याण से जोड़ा गया है। अच्छा मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य भी आत्म-नियंत्रण से जुड़े हैं। हालांकि, चोट लगने के बाद समझ आया कि आत्म-नियंत्रण एक मांसपेशी की तरह है। जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है, यह उतना ही मजबूत होता जाता है। इस व्यायाम के प्रमुख उपकरण में से एक है संतुष्टि। जो किया,जितना किया, अपने दम पर किया – उतने में संतुष्ट होना आवश्यक है।वैसे भी, पंचतंत्र में कहा गया है – ‘कृत्स्नेमेकत्र दुर्लभम्’ – यानि सब कुछ एक ही स्थान पर मिलना कठिन है।
दूसरा प्रमुख उपकरण है सतर्कता। यहाँ मात्र साइकिल चलाते समय ही नहीं अपितु स्वयं के विवेक की चरित्र शक्ति का उपयोग भी आत्म-नियंत्रण में सुधार के लिए ज़रूरी है। आवेग में आ कर गति नियंत्रित कर ली होती तो मोहल्ले वालों को इकठ्ठा करने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
क्या मेरे पास विकल्प थे? हाँ शायद। गति धीमे कर सकती थी। उत्साहित होने की बजाए नियंत्रित गति से आगे बढ़ सकती थी। ये होती है संज्ञानात्मक क्षमता। निर्णय लेने में आवेगी होने से पहले विकल्पों का पता लगाने के लिए समय निकालना आत्म-नियंत्रण का एक मजबूत उदाहरण है।
विनाशकाले विपरीत बुद्धि – सत्य है,
किन्तु फिर भी –
व्यसने वार्थकृच्छ्रे वा भये वा जीवितान्तगते।
विमृशंश्च स्वया बुद्ध्या धृतिमान नावसीदति।।
शोक में, आर्थिक संकट में या प्राणों का संकट होने पर जो अपनी बुद्धि से विचार करते हुए धैर्य धारण करता है। उसे अधिक कष्ट नहीं उठाना पड़ता।
आत्म-नियंत्रण का एक अन्य तत्व वैकल्पिक दृष्टिकोणों को प्रभावी ढंग से देखने की क्षमता है। किसी अन्य व्यक्ति के व्यवहार पर आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया करने के बजाय, करुणा और सहानुभूति का प्रयोग कीजिए।
1940 के दशक से, मनोवैज्ञानिकों ने आत्म-नियंत्रण सिद्धांत का अध्ययन किया है। उनके अनुसार हमारे व्यक्तिगत अनुभव उन अनुभवों के आधार पर नए निर्णय लेने के लिए निहित रूप से सिद्ध होते हैं। चिकित्सकीय तौर पर हमारे आवेगों को नियंत्रित करने की क्षमता मस्तिष्क के प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स पर आधारित होती है। मानव मस्तिष्क का यह हिस्सा जटिल तंत्रिका कनेक्शनों से समृद्ध है, जिससे हम योजना बनाते हैं, इच्छाशक्ति भी इसी पर निर्भर है और इसी से अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं।
घुटनों पर निशान तो आज भी हैं मेरे। हल्के हैं, पर वो मीठी यादें ताज़ा हैं।प्रतिस्पर्धा के इस दौर में हमारे आवेगों को प्रभावी ढंग से बाधित करने में बहुत अधिक ऊर्जा लगती है। तो महत्वपूर्ण यह है कि आप ऊर्जा कहाँ व्यय करना चाहते हैं – आवेगों को नियंत्रित करने में या संतुष्ट, सतर्क और संज्ञानात्मक क्षमता को विकसित करने में? बताइए, कितनी तेज़ दौड़ना या साइकिल चलाना चाहते हैं आप? बस, इतनी तेज़?