लेखिका यशोधरा भटनागर हिंदी की ख्याति प्राप्त लेखिका हैं।
इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई है।
एक्सपोज़ टुडे।
मखमली घास पर मखमली जूते पहने, सिर पर हरे -भरे पत्र- छत्र छाँह लिए, आकाश की तिलस्मी दुनिया की ओर दृष्टि गढ़ाए हमारा कर्णधार अपनी ही धुन, अपने ही सुख में लीन,बेपरवाह बढ़ता चला जा रहा है….।जहाँ है सपनों की रुपहली,चकाचौंध से भरी दुनिया…।एक उड़ान..सपनों को पाने की चाहत।
सपनों को पाने की चाहत बुरी नहीं।बुरा है तो दृष्टिकोण..।संकीर्ण ,संकुचित दृष्टिकोण और सीमित ,अपर्याप्त प्रयास।
जब नन्हे बालक यथार्थ के कठोर धरातल से कोसों दूर, बहुत दूर… दूर पहुँच, चाँद को पाना चाहते हैं, जब पाँव के नीचे ज़मीन नहीं होती और उड़ने के लिए पंख भी नहीं, तो इस क्रिया की परिणति क्या होगी? गिरे मुँह के बल ‘धड़ाम’..!अधोगति ! पतन!
उफ्फ! नहीं सहन कर पाता वह यह चोट।जब उसने अपने शरीर पर एक खरोंच नहीं देखी,न ही कभी झेली पैरों की फटी बिवाई की पीर ,नहीं देखा कभी खुरदरे हो आए हाथों की खुरदुरी काली लकीरों को। नहीं देखा कभी स्व देह को स्वेद बिंदुओं से दमकते हुए।और न ही कभी आँखों ने आर्द्रता को अनुभव किया।
तब हम कैसे गढ़ पाएँगे लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को, कर्मवीर शास्त्री जी को, सादगी की प्रतिमूर्ति राजेंद्र बाबू को?कैसे बाँध पाएँगे इन्हें माटी की गंध से? जब इन्होंने अपनी देह को कभी माटी से अलंकृत ही नहीं किया।फिर कैसे होगा मातृ -भूमि की रज से मोह ?फिर कैसे होगा सिर पर कफन बाँध देश पर सर्वस्व न्यौछावर करने का भाव?
ओह! यह क्या?हम कैसी पौध तैयार कर रहे हैं?जिसे कभी ज़मीनी वातावरण-प्राकृतिक खाद,हवा, पानी का सुख मिला ही नहीं।जो कृत्रिम वातावरण में पली- बढ़ी ,जो धूप-घाम ,
वर्षा-जाड़े का अनुभव करने से वंचित है।जिसकी देह में वह शक्ति ही नहीं जो भारत के भरत में थी,वह इंद्रिय निग्रह ही नहीं जो ‘बुद्ध ‘बने सिद्धार्थ में था। वह आत्मविश्वास, आत्मशक्ति ही नहीं जो भारत के ‘लाल’-लाल बहादुर में थी।वह साहस ही नहीं जो भारत के ‘सिंह’ भगत में था।
कहाँ चूक हुई ? क्या हो गया वीर प्रस्विनी भारत माँ के पूतों को? क्यों आज भारत अपत्य हुए ,तन से ,मन से अशक्त -कमजोर?
शायद कारण है बदलता परिवेश ।पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति की ऐसी आँधी चली कि भारतीय संस्कृति-वट- वृक्ष समूल धराशायी हो गया है और आज हमारी भाषा ,लिपि अपने प्राण, काया स्वास्तित्व संघर्ष में समूल नष्ट हो अंतिम सांसे गिन रहे हैं। ओह!!
रीढ़ की हड्डी विहीन, भाषा-लिपि विहीन हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं?क्यों न हम शुष्क हो रही उदार ,उदात्त ,
समृद्ध-संपन्न भारतीय संस्कृति -सलिला को पुनर्जीवित कर,शाश्वत जीवन -मूल्यों,जीवन- दर्शन से नित सींच-सींच ,हम क्यों न स्वस्थ, हृष्ट -पुष्ट पौध का सृजन करें? क्यों न वीर प्रस्विनी भारत माँ की गोद पुनः गौरवान्वित करें!