लेखक डॉ आनंद शर्मा रिटायर्ड सीनियर आईएएस हैं और वर्तमान में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी है।
रविवारीय गपशप
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सामान्यत: हम लोगों के दिमाग में प्रसिद्ध और अमीर लोगों के लिए एक अलग ही काल्पनिक छवि रहती है कि रूपए पैसों की ऐसे लोगों को क्या परवाह होती होगी। लेकिन सच्चाई तो ये है कि इतने बड़े मुकाम पर पहुंचे लोग इन सभी मामलों में बड़े सतर्क होते हैं और आसानी से इनसे कुछ भी मनमाफिक करा लेना संभव नहीं है। उज्जैन में श्री महाकालेश्वर मंदिर के दर्शन करने बड़े-बड़े लोग आते रहे हैं, जिनसे मुलाकात के संयोग के बाद ही ये अनुभव मुझे हुए हैं जो मैं आपसे आज साझा कर रहा हूँ।
उज्जैन में प्रतिवर्ष कालिदास समारोह बड़े धूम-धाम से सम्पन्न होता था। पूरे देश भर से रंगकर्म, नृत्य, शिल्प और साहित्य की विभिन्न विधाओं के मूर्धन्य विद्वान व कलाकार इस समारोह में भाग लेने आते थे। उन दिनों उज्जैन में स्वर्गीय भूपाल सिंह कलेक्टर हुआ करते थे। कालिदास समारोह के सम्बंध में अक्सर हमें इन प्रतिष्ठित कार्यक्रमों में यथेष्ठ दर्शक संख्या को लेकर चिंता रहा करती थी। भूपालसिंह जी के सुझाव पर इसके लिए समारोह की शुरूआत में एक कलश यात्रा निकालना आरंभ किया गया जिसमें बड़ी संख्या में आम लोगों को जुड़ना आरंभ हो गया। कुछ और प्रयोग हुए जिसमें फिल्मी दुनिया के प्रसिद्ध कलाकारों को भी आहूत किया गया। इन्हीं प्रयोगों के सिलसिले में भूपाल सिंह जी ने यह तय किया कि प्रत्येक समारोह में देश के एक प्रसिद्ध उद्योगपति को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाए ताकि व्यावसायिक जगत में इस कार्यक्रम की प्रसिद्धी हो और उद्योगपतियों के आने से जिले को कुछ लाभ भी मिल सके। उस वर्ष श्री आर पी गोयनका को इस विशिष्ट आतिथ्य के लिए चुना गया जो तब के प्रसिद्ध सेल्युलर कंपनी आरपीजी के मालिक थे। गोयनका जी को लाने की जवाबदारी श्री राजीव निगम को दी गई जो शहरी विकास अभिकरण के मुख्य कार्यपालन अधिकारी थे और बात करने में बड़े होशियार माने जाते थे। राजीव को यह पढ़ा लिखाकर भेजा गया था कि गोयनका जी को इंदौर से उज्जैन आने के बीच में, उद्योग लगाने की संभावनाओं के सम्बंध में वे प्रारंभिक रूचि जगाने का काम करेंगे। संध्या काल में होने वाले कार्यक्रम में जब गोयनका जी मंच पर विराज गए, तब मैंने धीमे से राजीव निगम से पूछा कि गोयनका जी ने क्या जवाब दिया। राजीव बोले रास्ते में जब थोड़ा इधर-उधर की बातों के बाद मैंने उज्जैन में उद्योग की संभावनाओं की बात की तो गोयनका जी खिड़की के बाहर झांकते हुए बोले कि यहां पोटेंशियल नहीं है। मैं समझ गया कि गोयनका जी को अतिथि के रूप में बुलाने के पीछे हमारा जो स्वार्थ था वो शायद ही पूरा हो पाए।
उज्जैन में उन दिनों महाकालेश्वर मंदिर में बहुत सारे विकास कार्य चल रहे थे और बहुतेरी योजनाएं हमारी ऐसी थीं जो ऐसे ही बड़े और सम्पन्न लोगों के दान से पूरी हो रही थीं। एक बार मुझे कलेक्टर श्री विनोद सेमवाल ने मुझे बुलाकर कहा कि मुम्बई से अनिल अंबानी अपने परिवार सहित दर्शन के लिए उज्जैन आ रहे हैं और ऊपर से निर्देश हैं कि उनकी ठीक से देखभाल करनी है। मुझे ये भी निर्देश मिले कि संपूर्ण सर्किट हाउस उनके लिए रिजर्व कर दिया जाए और यदि उस दौरान कोई और मेहमान आते हैं तो उन्हें पर्यटन विभाग की होटल क्षिप्रा या एमपीईबी के रेस्ट हाउस में यथायोग्य भेजा जाए। मैंने अपने साथी अधिकारियों के साथ व्यवस्थाएं जमा दीं और स्वयं उनकी अगवानी के लिए सर्किट हाऊस में निर्धारित समय पर पहुंच गया। थोड़े समय बाद ही अनिल अंबानी उनकी पत्नी टीना व मां कोकिला बेन के साथ सर्किट हाउस में आ गए। अनिल अंबानी जी के बहन व बहनोई भी उनके साथ ही आए थे जिनका गोवा में शिपिंग उद्योग का कारोबार था। प्रारंभिक स्वागत, परिचर्या के दौरान ही मुझे पता चल गया कि ये लोग धीरू भाई अंबानी के लिए महाकाल मंदिर में किए गए महामृत्युंजय यज्ञ की पूर्णाहुति के लिए आए हैं। दरअसल उन दिनों धीरू भाई एक गंभीर बीमारी से ठीक हुए थे और उनके स्वास्थ्य और सलामती के लिए महामृत्युंजय का यज्ञ सूर्यनारायण पुजारी जी के द्वारा सम्पन्न किया गया था। स्वास्थ्यगत कारणों से खुद न आ पाने के कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी और परिवार को यज्ञ की पूर्णता के लिए उन्हें भेजा था। मंदिर में जब मैं उन्हें दर्शनों के लिए साथ लेकर गया तो नंदी हॉल की सीढि़यों से उतरते हुए अनिल अंबानी जी ने अपनी जेब से पांच सौ के नोटों की एक गड्डी निकालते हुए हाथ में ली व मुझसे कहा कि ‘’शर्माजी आप मेरे पास ही रहना और मुझे बताते रहना कि किस पंडित को कितनी दक्षिणा देनी है, ऐसा न हो कि इनकी मनमानी मांग को मैं समझ न पाऊं और योग्यता से ज्यादा दक्षिणा बांट दूं। मैंने हां तो कह दिया लेकिन मन ही मन अनिल अंबानी जी के हाथों में पांच सौ के नोटों की गड्डी देखते हुए सोचने लगा कि यदि मैं अनिल अंबानी की जगह होता तो पांच-पांच सौ के नोटों के स्थान पर पांच-पांच सौ के नोटों की गड्डियां ही दान कर देता लेकिन ये तो एक गड्डी में ही खर्च का पैमाना सीमित कर रहे हैं। कुल मिलाकर दुनियादारी के फ़लसफ़े कुछ और ही होते हैं | राहत इंदौरी के शब्दों में कहें तो “ घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया , घर के अंदर दुनियादारी रहती है |