ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी तथा
धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता
एक्सपोज़ टुडे।
सूचना क्रांति के पहले भी अनेक क्रांतियॉं हुईं हैं । औद्योगिक क्रांति हुई जिसने जीवन को भौतिक रूप से सरल और सुखद बना दिया। वैचारिक रूप से पूँजीवाद भी क्रांति है, मार्क्स का साम्यवाद भी क्रांति है और समाजवाद भी क्रांति है। संसार में इसाई, इस्लाम और यहूदी जैसे अब्राहमिक धर्मों का उदय, भारत में वेदांत दर्शन और इसी में से बौद्ध व जैन धर्मों का उदय आदि धार्मिक-वैचारिक क्रांतियॉं थीं जिन्होंने पूरे संसार को बदल डाला। इन सब में एक बात समान थी वह यह कि विचारों का दार्शनिक आधार था, उसे देने वाले एक या अनेक महापुरुषों ने एक अनुशासन के अंतर्गत विचार श्रृंख्ला प्रस्तुत की और समाज ने उसके प्रायोगिक रूप को अपनाया। भारत में आम लोग वेदान्त के ब्रह्म का दार्शनिक विवेचन समझने में भले ही सक्षम न हों परंतु वे पूजा, व्रत, तीर्थयात्रा, भजन-कीर्तन, दान, उम्र के अनुसार चार आश्रमों की व्यवस्था के माध्यम से ईश्वर के अनुभव की यात्रा करते थे।
सूचना क्रांति ने स्थिति बदल डाली। अब विचार देने के लिए अनुभव, बौद्धिकता, पात्रता होना आवश्यक नहीं। कोई भी मूर्ख या कुटिल व्यक्ति अपने विचारों को कभी भी ‘वायरल’ कर सकता है और बगैर किसी परीक्षण के वे समाज का मस्तिष्क दूषित करने का काम वखूबी कर सकते हैं। अपनी आक्रामकता को सिद्ध करने के लिए तुलसीदासजी के नाम पर दोहे-चौपाई, शास्त्रों का नाम लेकर संस्कृत में फर्जी श्लोक बनाकर सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से भेजे जा रहे हैं। ऐसे लोग समन्वय व सहिष्णुता को धर्म विरोधी घोषित कर चुके हैं, पुरुषार्थ से दूर तक कोई नाता नहीं रहा, चमत्कार से सब पा लेना चाहते हैं और इसलिए फर्जी बाबाओं के आश्रम गुलजार होने लगे हैं।
अभी भी समाज में बहुतायत ऐसे सामान्य लोगों की है जो गूढ़ दर्शन और ग्रंथों के चक्कर में पड़े बगैर अपने संस्कार और परम्पराओं के आधार पर शांतिप्रिय जीवन जी रहे हैं। मैनें आज से 25 वर्ष पूर्व अपनी 94 बर्ष की अशिक्षित दादी को पूजा के समय कहते सुना है – भगवान् सबको भलो करियो सबके पाछे हमाओ भलो करियो। यही व्यवहारिक धर्म था। भगवान् राम धनुष-बाण धारण करते थे पर उनके मुख पर प्रेम, करुणा, आश्वस्ति के भाव होते थे, हाथ वरद् मुद्रा में सारे संकटों से बचाने का आश्वासन देता था। हनुमान् महान योद्धा बाद में थे पहले रामभक्त, ज्ञानी और सभी गुणों के भंडार थे। अब स्थिति बदल गई है। सूचना क्रांति ने राम का क्रोधित, युद्ध को तैयार स्वरूप घर-घर में पहुँचा दिया है। हनुमान अब क्रुद्ध महाकाल जैसे दिखने लगे हैं। ब्रह्म के रूप में राम के सृजन और पालन करने वाले स्वरूप गायब हो गये हैं कुछ बचा है तो वह है संहार का स्वरूप। युवाओं के कोमल मस्तिष्क में धर्म के नए आक्रामक स्वरूप का उदय हो रहा है।
धर्म का बाहरी चोला तेजी से बदल रहा है। आम श्रद्धालु भ्रम में है कि क्या यही वेदों से निकला सनातन धर्म है? ऐसी स्थिति में वह कौन सी कसौटी है जिस पर वह धार्मिक क्रियाओं का परीक्षण कर सके ? वेदों की घोषणा है कि ब्रह्म एक है और संसार उसी का रूप है इसलिए संसार के कण-कण में उसी ब्रह्म की सत्ता विद्यमान है। मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष, पहाड़, नदियॉं सभी ब्रह्म के प्रकटीकरण का माध्यम हैं। इनमें तात्विक रूप से कोई भेद नहीं है। इस बात को अनुभव कर लेना (बौद्धिक रूप से समझ लेना भर नहीं) ही ईश्वर का साक्षात्कार है। यही जीवन का ध्येय है। यही मुक्ति है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही अनेक दर्शन, धार्मिक क्रियाऍं, उपासना पद्धतियॉं पैदा हुईं ताकि हर व्यक्ति अपनी प्रकृति व रुचि के अनुसार मार्ग का अनुसरण कर सके। पर सभी का अंतिम लक्ष्य एक ही है – कण-कण में ईश्वर की अनुभूति करना – सीय राममय सब जग जानी।
हिन्दू धर्म के ग्रंथ – गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों को सामूहिक रूप से प्रस्थानत्रयी कहते हैं। यह वेदान्त के तीन स्तम्भ हैं। वेदों के दर्शन, ज्ञान और उपासना का सार तथा तर्क और प्रमाण द्वारा उसे सिद्ध करने की प्रक्रिया ही प्रस्थानत्रयी है। यह धर्म की यात्रा का प्रस्थान बिंदु है। कोई भी मत तभी सनातन धर्म का अंश माना जा सकता है जब वह इन तीनों की कसौटी पर खरा उतरे। जब आदिशंकराचार्य जी ने अद्वैत मत की स्थापना की तो उन्होंने इन ग्रंथों पर भाष्य लिखकर सिद्ध किया कि उनका मत सनातनधर्म के अनकूल है। इसी प्रकार प्राचीन आचार्यों निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद, रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद, मध्वाचार्य ने द्वैतवाद आदि का प्रतिपादन करने के लिए प्रस्थानत्रयी के ग्रंथों पर भाष्य लिखकर अपने मत को प्रतिपादित किया। अद्वैत, ब्रह्म और जीव को एक मानता है, द्वैत, ब्रह्म, जीव और संसार में भिन्नता मानता है वहीं विशिष्टाद्वैत में ब्रह्म व जीव का वैसा ही संबंध बताया है जैसा सूर्य व उसकी किरणों में होता है, सूर्य के बिना उसकी किरणों का अस्तित्व नहीं है परंतु दोनों भिन्न भी हैं। इसी प्रकार अन्य वाद हैं परंतु एक बात सबमें समान है कि प्रत्येक वाद का उद्देश्य ब्रह्म को प्राप्त करना है, इसलिए इन्हें ब्रह्मवाद कहा जाता हैं। यही सनातनधर्म (हिन्दूधर्म) का लक्ष्य है और कोई क्रिया इस लक्ष्य को प्राप्त करा सकती है या नहीं यही उसके सनातनधर्म का अंश होने की कसौटी है।
इसलिए बौद्धिक रूप से समर्थ विचारकों, साधु-संतों का दायित्व है कि वे तो प्रस्थानत्रयी और उसके भाष्यों जैसे मूल ग्रंथों की कसौटी पर धर्म के नाम पर प्रचलित प्रथाओं और रीतियों का परीक्षण करें और समाज को दिशा दिखाऍं। हम स्वयं भी यह काम कर सकते हैं। हमें धर्म के नाम पर परोसी जा रही सामग्री का विवेकपूर्वक परीक्षण करना है। धर्म का अर्थ है जो संसार में भौतिक समृदि्ध दे व आत्मकल्याण (चरम लक्ष्य -ब्रह्म की अनुभूति) करे – यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म:। जो कार्य हमारी कार्यकुशलता बढ़ाए, समृद्धि बढ़ाए, जीवन को सुखी बनाए वह धर्म का भाग होगा। दान करने से वस्तुओं से आसक्ति और उन पर अधिपत्य के भाव में कमी आती है, दया करने से दूसरे को अपना ही अंश समझने की प्रवृत्ति बढ़ती है, अहिंसा से हृदय प्रेमपूर्ण होता है, लोभ के त्याग से नि:स्वार्थ कर्म की प्रगति होती है, अक्रोध से इंद्रियों पर नियंत्रण बढ़ता है, ईश्वर की आराधना से आत्मसमर्पण की प्रवृत्ति बढ़ती है। ऐसी हजारों बातें हैं जो निरंतर पालन करने पर सारा संसार अपना ही विस्तार दिखाई देने लगता है और स्वयं को व्यष्टि का अटूट अंश होने का अनुभव होने लगता है। यही ब्रह्म का साक्षात्कार है। यही सनातन धर्म की पूर्णता है। यही प्रक्रियाऍं सनातन धर्म की कसौटी पर खरी उतरती हैं।
धर्म की इस प्रक्रिया में व्यक्ति कमजोर या कायर नहीं बनता है। वह तो आंतरिक और वाह्य दोनों रूपों में सबल बनता है। यह ताकत सकारात्मक होती है। इसके विपरीत यदि कोई विचार आपको दूसरों के प्रति आक्रामक बनाता है, आत्मवत् सर्वभूतेषु के स्थान पर केवल अपने समुदाय के हितों की चिंता और दूसरे के प्रति घृणा पैदा करता है तो वह हमारे अंतर का संकुचन करता है। वह विराट् की अनुभूति नहीं करा सकता। इसलिए ऐसा विचार सामाजिक या राजनैतिक हो सकता है धार्मिक नहीं। इस संक्रमणकाल में सनातन धर्म की सही समझ ही मार्ग दिखा सकती है इसके लिए धर्म की कसौटी की समझ विकासित करने की जरूरत है।