सतना। सुलखमा गाँव के हर घर से सुबह हो या शाम चरखे की आवाज कानों को सुकून देती है। गाँव को देख दशकों पहले गाँधी युग की यादें ताज़ा हो जाती है। गाँधी की दी हुई सीख और स्वावलंबी भारत का सपना गाँव ने आज भी साकार दिखाई दे रहा है। साढ़े तीन हजार की आबादी वाले इस गाँव में लोग आज भी चरखा चलाकर कपडे और कंबल बना रहे हैं। गाँव वालों के लिए यहाँ आजीविका का जरिया तो है ही लेकिन उससे कहीं ज्यादा गाँधी की सीख और परम्पराओं को जिन्दा रखने की एक बड़ी बानगी भी है।
सुलखमा गाँव सतना जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर दूर बसा है। स्वावलंबन की प्रथा को बनाए रखने वाले इस गाँव के लगभग हर घर में एक चरखा चलाया जाता है। यहाँ की आबादी लगभग साढे तीन हजार है। गाँव में दो सौ से ज्यादा घरो में चरखे की आवाज सुनाई देती है। पाल जाति से बाहुल्य इस गाँव की यह परम्परा महात्मा गाँधी के सिखाए पाठ की देन है।
महात्मा गाँधी ने जिस स्वावलंबी भारत का सपना सजोया था वह भारत इस गाँव में देखने को मिलता है। गाँव के लोग चरखे से कपड़े और कंबल बनाकर बेचते हैं। चरखा परम्परा के साथ-साथ इनकी अजीवीका का मुख्य साधन भी है। गाँव के लोगों ने अपने काम को बाँटा हुआ है। जैसे चरखा चलाकर सूत कातने का काम घर की महिलाओं का होता है। महिलाएं रोजमर्रा के घरेलू काम निपटाकर चरखे से सूत तैयार करती हैं। इसके बाद का काम घर में पुरूषो का होता है जो इस सूत से कम्बल और बाकि चीजे बुनने का काम करते हैं।
सुलखमा गाँव में दशकों से यह परम्परा चली आ रही है। गाँव के बुजुर्गो ने महात्मा गाँधी के स्वदेशी अभियान से प्रभावित होकर चरखा चलाना सीखा था। आजादी के इतने सालों बाद भी गाँव वालों ने अपनी विरासत को मरने नहीं दिया। हालाँकि अब यह विरासत कमजोर जरुर होने लगी है। इसका कारण यह है कि कई दिनों तक चरखा चलाने और बुनने के बाद भी लोगों को पूरी मजदूरी नहीं मिल पाती है। गाँव के लोगों को एक अदद सरकारी मदद की दरकार है ताकि इन्हें काम की सही मजदूरी मिल सके।
गाँव वालों का कहना है कि इतने सालों से यह काम कर रहे हैं। इससे हाथ-पैर में दर्द भी रहता है। फिर भी पूरा गाँव यही काम करता है। यही हमारी जीविका और रोजगार का साधन है। हमें आज तक किसी तरह की प्रशासनिक मदद नहीं मिली। लोग आते हैं देख कर चले जाते हैं। बस किसी तरह घर परिवार चल रहा है। अगर सरकारी मदद मिलती है तो उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा।
भले ही गाँव के लोग सालों से इस परम्परा को निभाने के साथ अपनी आजीविका चला रहे हो लेकिन उन्हें सरकार से आस हैं कि उनकी आमदनी को बढ़ाने के लिए कुछ और भी कोशिशें की जाए।